ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 26
सावित्री-धर्मराज के प्रश्नोत्तर, सावित्री को वरदान भगवान नारायण कहते हैं- नारद! सावित्री के वचन सुनकर यमराज के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हँसकर प्राणियों के कर्म-विपाक कहने के लिए उद्यत हो गए। धर्मराज ने कहा- 'प्यारी बेटी! अभी तुम हो तो अल्प वय की बालिका, किंतु तुम्हें पूर्ण विद्वानों, ज्ञानियों और योगियों से भी बढ़कर ज्ञान प्राप्त है। पुत्री! भगवती सावित्री के वरदान से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम उन देवी की कला हो। राजा ने तपस्या के प्रभाव से सावित्री जैसी कन्यारत्न को प्राप्त किया है। जिस प्रकार लक्ष्मी भगवान विष्णु के, भवानी शंकर के, राधा श्रीकृष्ण के, सावित्री ब्रह्मा के, मूर्ति धर्म के, शतरूपा मनु के, देवहूति कर्दम के, अरुन्धती वसिष्ठ के, अदिति कश्यप के, अहल्या गौतम के, शची इन्द्र के, रोहिणी चन्द्रमा के, रति कामदेव के, स्वाहा अग्नि के, स्वधा पितरों के, संज्ञा सूर्य के, वरुणानी वरुण के, दक्षिणा यज्ञ के, पृथ्वी वाराह के और देवसेना कार्तिकेय के पास सौभाग्यवती प्रिया बनकर शोभा पाती हैं, तुम भी वैसी ही सत्यवान की प्रिया बनो। मैंने यह तुम्हें वर दे दिया। महाभागे! इसके अतिरिक्त भी जो तुम्हें अभीष्ट हो, वह वर माँगो। मैं तुम्हें सभी अभिलषित वर देने को तैयार हूँ।' सावित्री बोली- 'महाभाग! सत्यवान के औरस अंश से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हों- यही मेरा अभिलषित वर है। साथ ही, मेरे पिता भी सौ पुत्रों के जनक हों। मेरे श्वशुर को नेत्र-लाभ हो और उन्हें पुनः राज्यश्री प्राप्त हो जाए, यह भी मैं चाहती हूँ। जगत्प्रभो! सत्यवान के साथ मैं बहुत लंबे समय तक रहकर अन्त में भगवान श्रीहरि के धाम में चली जाऊँ, यह वर भी देने की आप कृपा करें।' 'प्रभो! मुझे जीव के कर्म का विपाक तथा विश्व से तर जाने का उपाय भी सुनने के लिए मन में महान कौतूहल हो रहा है; अतः आप यह भी बतावें।' धर्मराज ने कहा- 'महासाध्वि! तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे। अब मैं प्राणियों का कर्म-विपाक कहता हूँ, सुनो। भारतवर्ष में ही शुभ-अशुभ कर्मों का जन्म होता है- यहीं के कर्मों को ‘शुभ’ या ‘अशुभ’ की संज्ञा दी गई है। यहाँ सर्वत्र पुण्य क्षेत्र है, अन्यत्र नहीं; अन्यत्र प्राणी केवल कर्मों का फल भोगते हैं। परंतु सबका जीवन समान नहीं है। उनमें से मानव ही कर्म का जनक होता है अर्थात मनुष्ययोनि में ही शुभाशुभ कर्म किए जाते हैं; जिनका फल सर्वत्र सभी योनियों में भोगना पड़ता है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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