ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 14-15
पार्वती को देवताओं द्वारा कार्तिकेय का समाचार प्राप्त होना, शिव जी का कृत्तिकाओं के पास दूतों को भेजना, वहाँ कार्तिकेय और नन्दी का संवाद तदनन्तर, पहले शंकर का वीर्य पृथ्वी पर गिरने से कार्तिकेय के उत्पन्न होने की बात आयी थी, उसी के सम्बन्ध में बात छिड़ने पर– श्रीधर्म ने कहा– भगवन! प्रकोप के कारण रति से उठते हुए शंकर जी का वह अमोघ वीर्य भूतल पर गिरा था, वह मुझे ज्ञात है। भूमि ने कहा– ब्रह्मन! उस वीर्य का वहन करना अत्यन्त कठिन था, इसलिये जब मैं उसका भार सहन न कर सकी, तब मैंने उसे अग्नि में डाल दिया; अतः मुझ अबला को क्षमा कीजिये। अग्नि ने कहा– जगन्नाथ! मैंने भी उस वीर्य का भार उठाने में असमर्थ होकर उसे सरकंडों के वन में फेंक दिया। भला, दुर्बल का पुरुषार्थ ही क्या और उसका यश ही कैसा? वायु ने कहा– विष्णो! स्वर्णरेखा नदी के तट पर सरकंडों में गिरा हुआ वह वीर्य तुरंत ही अत्यन्त सुन्दर बालक हो गया। श्रीसूर्य ने कहा– भगवन! कालचक्र से प्रेरित हुआ मैं उस रोते हुए बालक को देखकर अस्ताचल की ओर चला गया; क्योंकि मैं रात में ठहरने के लिए असमर्थ हूँ। चन्द्रमा ने कहा– विष्णो! उसी समय कृत्तिकाओं का समुदाय बदरिकाश्रम से आ रहा था। उन्होंने उस रुदन करते हुए बालक को देखा और उसे उठाकर वे अपने भवन को चली गयीं। जल ने कहा– प्रभो! कृत्तिकाओं ने उस रोते हुए शिशु को अपने घर लाकर और उसके भूखे होने पर उसे अपने स्तनों से दूध पिलाकर बढ़ाया। वह शिव-पुत्र सूर्य से भी अधिक प्रभावशाली था। दोनों संध्याओं ने कहा– भगवन! इस समय वह बालक छहों कृत्तिकाओं का पोष्य पुत्र है। उन्होंने स्वयं ही प्रेमपूर्वक उसका ‘कार्तिकेय’ ऐसा नाम रखा है। रात्रि ने कहा– प्रभो! वे कृत्तिकाएँ उस बालक को आँखों से ओझल नहीं करती हैं। उनके लिये वह प्राणों से भी बढ़कर प्रेमपात्र है; क्योंकि जो पालन करने वाला होता है, उसी का वह पुत्र कहलाता है। दिन ने कहा– देव! जो-जो वस्तुएँ त्रिलोकी में दुर्लभ हैं और अपने स्वाद के लिये प्रशंसित हैं, उन्हीं को वे उस बालक को खिलाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |