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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 107
रुक्मी आदि का यादवों के साथ युद्ध, शाल्व का वध, रुक्मी की सेना का पलायन, बारात का पुरी में प्रवेश और स्वागत-सत्कार, शुभलग्न में श्रीकृष्ण का बारातियों तथा देवों के साथ राजा के आँगन में जाना, भीष्मक द्वारा सबका सत्कार करके श्रीकृष्ण का पूजन श्रीनारायण कहते हैं- नारद! तदनन्तर बलदेव जी ने हल के द्वारा रुक्मि का रथ भंग कर दिया। फिर तो घोर युद्ध आरंभ हो गया। शाल्व मारा गया। बलदेवजी शिशुपाल को मार रहे थे; परंतु उसे श्रीकृष्ण के द्वारा मारे जाने वाला समझकर शिव जी ने बलदेव जी को रोक दिया। बलदेव जी के विक्रम को देखकर सब इधर-उधर भाग गये। तब महामुनि शतानन्द जी ने आकर अभ्यर्थना की। बारात ने पुरी में प्रवेश किया। बड़ा भारी स्वागत-सत्कार किया गया। उस समय की वररूप सुसज्जित श्रीकृष्ण की शोभा अवर्णनीय थी। उनके शरीर की कान्ति नूतन जलधर के समान श्याम थी, वे पीताम्बर से सुशोभित थे, उनके सर्वांग में चंदन का अनुलेप किया गया था, वे वनमाला से विभूषित तथा रत्नों के बाजूबंद, कंकण और हिलते हुए हार से प्रकाशित हो रहे थे, उनके कपोल रत्ननिर्मित दोनों कुण्डलों से उद्भासित हो रहे थे, कटिभाग में अमूल्य रत्नों के सारभाग से बनी हुई करधनी की मधुर झंकार हो रही थी, जिससे उनकी शोभा और बढ़ गयी थी, उनके एक हाथ में मुरली सुशोभित थी वे मुस्कराते हुए रत्नजटित दर्पण की ओर देख रहे थे, सात गोप पार्षद श्वेत चँवरों द्वारा उनकी सेवा कर रहे थे, उनका शरीर नवयौवन के उमंग से संपन्न ता, नेत्र शरत्कालीन कमल के से सुन्दर थे, मुख शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा की निन्दा कर रहा था, वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए कातर हो रहे थे और उनका सौंदर्य करोड़ों कामदेवों का मान हर रहा था। वे सत्य, नित्य, सनातन, तीर्थों को पावन करने वाले, पवित्रकीर्ति तथा ब्रह्मा, शिव और शेषनाग द्वारा वन्दित हैं। उनका रूप परम आह्लादजनक था तथा उनकी प्रभा करोड़ों चंद्रमाओं के सदृश थी। वे ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, परमोत्कृष्ट तथा प्रकृति से परे हैं। वे दुर्वासहित रेशमी सूत्र, अमूल्य रत्नजटित दर्पण और कंघी करके ठीक की हुई कदली की खिली हुई मञ्जरी धारण किए हुए थे। उनकी शिखा मालती की मालाओं से विभूषित त्रिविक्रम के से आकारवाली थी। उनका मस्तक नारियों द्वारा दिए गये पुष्पमय मुकुट से उद्दीप्त हो रहा था। ऐसे ऐश्वर्यशाली वर को देखकर युवतियाँ प्रेमवश मूर्च्छित हो गयीं और कहने लगीं कि ‘रुक्मिणी का जीवन धन्य एवं परम श्लाघनीय है।’ जब महारानी भीष्मक-पत्नी की दृष्टि अपने जामाता पर पड़ी तब वे परम प्रसन्न हुईं। उनके मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। वे निर्निमेष दृष्टि से उनकी ओर निहारने लगीं। राजा भीष्मक भी अपने पुरोहित तथा मंत्रियों सहित परम हर्षित हुए। उन्होंने वहाँ आकर देवताओं, ब्राह्मणों तथा समस्त प्राणियों को प्रणाम किया और उन सबको अमृतोपम भक्ष्यसामग्रियों से परिपूर्ण यथायोग्य वासस्थान दिया। वहाँ रात-दिन ‘दीयताम् दीयताम्- देते रहो, देते जाओ’- यही शब्द गूँज रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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