ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 44-46
भगवान नारायण कहते हैं– ब्रह्मपुत्र नारद! आगम शास्त्र के अनुसार षष्ठी देवी का चरित्र कह दिया। अब भगवती मंगलचण्डी का उपाख्यान सुनो, साथ ही उनकी पूजा का विधान भी। इसे मैंने धर्मदेव के मुख से सुना था, वही बता रहा हूँ। यह श्रुतिसम्मत उपाख्यान सम्पूर्ण विद्वानों को भी अभीष्ट है। ‘चण्डी’ शब्द का प्रयोग ‘दक्षा’[1]के अर्थ में होता है और ‘मंगल’ शब्द कल्याण का वाचक है। जो मंगल-कल्याण करने में दक्ष हो, वह ‘मंगलचण्डिका’ कही जाती है। ‘दुर्गा’ के अर्थ में चण्डी शब्द का प्रयोग होता है और मंगल शब्द भूमिपुत्र मंगल के अर्थ में भी आता है। अतः जो मंगल की अभीष्ट देवी हैं, उन देवी को ‘मंगलचण्डिका’ कहा गया है। मनुवंश में मंगल नामक एक राजा थे। सप्तद्वीपवती पृथ्वी उनके शासन में थी। उन्होंने इन देवी को अभीष्ट देवता मानकर पूजा की थी। इसलिये भी ये ‘मंगलचण्डी’ नाम से विख्यात हुईं। जो मूलप्रकृति भगवती जगदीश्वरी ‘दुर्गा’ कहलाती हैं, उन्हीं का यह रूपान्तर है। ये देवी कृपा की मूर्ति धारण करके सबके सामने प्रत्यक्ष हुई हैं। स्त्रियों की ये इष्टदेवी हैं। सर्वप्रथम भगवान शंकर ने इन सर्वश्रेष्ठरूपा देवी की आराधना की। ब्रह्मन! त्रिपुर नामक दैत्य के भयंकर वध के समय का यह प्रसंग है। भगवान शंकर बड़े संकट में पड़ गये थे। दैत्य ने रोष में आकर उनके वाहन विमान को आकाश से नीचे गिरा दिया था। तब ब्रह्मा और विष्णु ने उन्हें प्रेरणा की। उन महानुभावों का उपदेश मानकर शंकर भगवती दुर्गा की स्तुति करने लगे। वे भी देवी मंगलचण्डी ही थीं। केवल रूप बदल लिया था। स्तुति करने पर वे ही देवी भगवान शंकर के सामने प्रकट हुईं और उनसे बोलीं- ‘प्रभो! तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। स्वयं सर्वेश भगवान श्रीहरि ही वृषभ का रूप धारण करके तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे। वृषध्वज! मैं युद्ध-शक्तिस्वरूपा बनकर तुम्हारा साथ दूँगी। फिर स्वयं मेरी तथा श्रीहरि की सहायता से तुम देवताओं को पदच्युत करने वाले उस दानव को, जिसने घोर शत्रुता ठान रखी है, मार डालोगे।’ मुनिवर! इस प्रकार कहकर भगवती अन्तर्धान हो गयीं। उसी क्षण उन शक्तिरूपी देवी से शंकर सम्पन्न हो गये। भगवान श्रीहरि ने एक अस्त्र दे दिया था। अब उसी अस्त्र से त्रिपुर-वध में उन्हें सफलता प्राप्त हो गयी। दैत्य के मारे जाने पर सम्पूर्ण देवताओं तथा महर्षियों ने भगवान शंकर का स्तवन किया। उस समय सभी भक्ति में सराबोर होकर अत्यन्त नम्र हो गये थे। उसी क्षण भगवान शंकर के मस्तक पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। ब्रह्मा और विष्णु ने परम संतुष्ट होकर उन्हें शुभ आशीर्वाद और सदुपदेश भी दिया। तब भगवान शंकर सम्यक प्रकार से स्नान करके भक्ति के साथ भगवती मंगलचण्डी की आराधना करने लगे। पाद्य, अर्घ्य, आचमन, विविध वस्त्र, पुष्प, चन्दन, भाँति-भाँति के नैवेद्य, बलि, वस्त्र, अलंकार, माला, तीर, पिष्टक, मधु, सुधा तथा नाना प्रकार के फलों द्वारा भक्तिपूर्वक उन्होंने देवी की पूजा की। नाच, गान, वाद्य और नाम-कीर्तन भी कराया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ चतुरा
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