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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 60-61
बृहस्पति का शची को आश्वासन एवं आशीर्वाद देना, नहुष का सप्तर्षियों को वाहन बनाना और दुर्वासा के शाप से अजगर होना, बृहस्पति का इंद्र को बुलाकर पुनः सिंहासन पर बिठाना तथा गौतम से इंद्र और अहल्या को शाप की प्राप्ति श्रीनारायण कहते हैं- नारद! शची द्वारा किए गये स्तोत्र को सुनकर बृहस्पति बहुत संतुष्ट हुए और शान्तभाव से इंद्रपत्नी शची के प्रति मधुर वाणी में बोले। बृहस्पति ने कहा- बेटी! सारा भय छोड़ दो। मेरे रहते तुम्हें भय किस बात का है? शोभने! मेरे लिए जैसे कचकी पत्नी (पुत्रवधू) रक्षणीय है, उसी प्रकार तुम भी हो। जो स्थान पुत्र का है, वही शिष्य का भी है। तर्पण, पिण्डदान, पालन और परितोषण- इन सभी कर्मों के लिए पुत्र और शिष्य में कोई भेद नहीं है। जैसे पुत्र पिता के मरने पर उसके लिए अग्निदाता होता है, अवश्य उसी तरह शिष्य गुरु के लिए अग्निप्रदाता कहा गया है। यह बात कण्वशाखा में ब्रह्मा जी ने कही है। पिता, माता, गुरु, पत्नी, छोटा, बालक, अनाथ एवं कुटुम्बीजन- ये पुरुषमात्र से नित्य पोषण पाने के योग्य हैं, ऐसा ब्रह्मा जी का कथन है[1]। जो इनका पोषण नहीं करता उसके शरीर के भस्म होने तक उसे सूतक (अशौच) का भागी होना पड़ता है। वह जीते जी देवयज्ञ तथा पितृयज्ञ में कर्म करने का अधिकारी नहीं रहता है- ऐसा महेश्वर का कथन है। जो माता, पिता और गुरु के प्रति मानव-बुद्धि रखता है, उसको सर्वत्र अयश प्राप्त होता है और उसे पग-पग पर विघ्न का ही सामना करना पड़ता है। जो संपत्तियों से मतवाला होकर अपने गुरु का अपमान करता है, उसका शीघ्र ही सर्वनाश हो जाता है; यह सुनिश्चित बात है। अपनी सभा में मुझे देखकर इंद्र आसन से नहीं उठे थे, उसी का फल इस समय भोग रहे हैं। गुरु के अपमान का शीघ्र ही जो कटु फल प्राप्त हुआ, उसे तुम अपनी आँखों देख लो। अब मैं इंद्र को शाप से छुड़ाऊँगा और निश्चय ही तुम्हारी रक्षा करूँगा। जो शासन और संरक्षण दोनों ही कर सकता हो, वही गुरु कहलाता है। जो हृदय से शुद्ध है अर्थात जिसके हृदय में कलुषित भाव नहीं पैदा हुआ है, उस नारी का सतीत्व नष्ट नहीं होता। परंतु जिसके मन में विकल्प है, उसका धर्म नष्ट हो जाता है। पतिव्रते! तुम्हारा दुर्गा जी के समान प्रभाव बढ़ेगा। तुम्हारी प्रतिष्ठा और यश लक्ष्मी जी के समान होंगे। सौभाग्य और पतिविषयक प्रेम श्रीराधिका के समान होगा। स्वामी के प्रति गौरव, मान, प्रीति तथा प्रधानता का भाव भी तुमसे श्रीराधा के ही सदृश होगा। रोहिणी के समान तुममें पति की अपेक्षा बुद्धि होगी। तुम भारती के समान पूजनीया तथा सावित्री के तुल्य सदा शुद्धा एवं उपमारहित होओगी। बृहस्पति जी ऐसा कह ही रहे थे कि नहुष के दूत ने वहाँ आकर शची से नन्दवन में चलने के लिए कहा। यह सुनते ही बृहस्पति जी का सारा शरीर क्रोध से काँपने लगा और उनकी आँखें लाल हो गयीं। वे उस दूत से बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पिता माता गुरुर्भार्या शिशुश्चानाथबान्धवाः। एते पुंसां नित्यपोष्या इत्याह कमलोद्भव।।-(60।5)
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