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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 87
सनत्कुमार आदि के साथ श्रीकृष्ण का समागम, सनत्कुमार के द्वारा श्रीकृष्ण के रहस्योद्घाटन करने पर नन्द जी का पश्चात्तापपर्ण कथन तथा मूर्च्छित होना नन्द जी ने कहा- प्रभो! आप स्वयं वेदों के अधीश्वर हैं; अतः वेद, ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवता तथा मुनि और सिद्ध आदि आपको जानने में असमर्थ हैं। आप कौन हैं- यह जानने के लिए मेरे मन में प्रबल उत्कण्ठा है; अतः इस निर्जन स्थान में आप अपना सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से वर्णन कीजिए। श्री नारायण कहते हैं- नारद! इसी बीच वहाँ श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए सहसा पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, भृगु, अंगिरा, प्रचेतागण, वसिष्ठ, दुर्वासा, कण्व, कात्यायन, पाणिनि, कणाद, गौतम, सनक, सनन्दन, तीसरे सनातन, कपिल, आसुरि, वायु (वोढु), पञ्चशिख, विश्वामित्र, वाल्मीकि, कश्यप, पराशर, विभाण्डक, मरीचि, शुक्र, अत्रि, बृहस्पति, गार्ग्य, वात्स्य, व्यास, जैमिनि, परिमित वचन बोलने वाले ऋष्यश्रृंग, याज्ञवल्क्य, शुक, शुद्ध जटाधारी सौभरि, भरद्वाज, सुभद्रक, मार्कण्डेय, लोमश, आसुरि, विटंकण, अष्टावक्र, शतानन्द, वामदेव, भागुरि, संवर्त, उतथ्य, नर, मैं (नारायण), नारद, जाबालि, परशुराम, अगस्त्य, पैल, युधामन्यु, गौरमुख, उपमन्यु, श्रुतश्रवा, मैत्रेय, च्यवन, करथ और कर मुनीश्वर आ पहुँचे। वत्स! वे सभी ब्रह्मतेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उन्हें आया देखकर श्रीकृष्ण सहसा उठ खड़े हुए और हाथ जोड़कर नमस्कार करने के पश्चात उन्हें आदर सहित रमणीय सिंहासनों पर बैठाये। फिर श्रीकृष्ण ने कुशल प्रश्नपूर्वक परस्पर वार्तालाप करके उनकी विधिवत पूजा की और स्वयं भी उन्हीं के मध्य में आसनासीन हुए। इसी समय श्रीकृष्ण को आकाश में एक समुज्ज्वल तेजोराशि दीख पड़ी। उसे मुनियों ने भी देखा। वत्स नारद! उस तेज के अंदर सुवर्ण की सी कान्तिवाले, पञ्वर्षीय नग्न बालक के रूप में सनत्कुमार जी थे। वे सहसा उस सभा के बीच प्रकट हो गये। उन्हें एकाएक सामने खड़े देखकर सभी मुनिवरों ने प्रणाम किया था तथा श्रीकृष्ण ने भी मुस्कानयुक्त एवं स्निग्ध नेत्रोंवाले कुमार को युक्तिपूर्वक सादर सिर झुकाया। तब सनत्कुमार जी उन सबको आशीर्वाद देकर उस सभा में विराजमान हुए और उन ऋषियों तथा सनातन भगवान श्रीकृष्ण से बोले। सनत्कुमार ने कहा- मुनिवरो! आपलोगों का सदा कल्याण हो और तपस्याओं का अभीष्ट फल प्राप्त हो; किंतु कल्याण के कारण स्वरूप इन श्रीकृष्ण का कुशल प्रश्न निष्फल है। इस समय तो आपलोगों का सर्वथा कुशल है; क्योंकि आपलोग उन परमात्मा का दर्शन कर रहे हैं, जो प्रकृति से परे होने पर भी भक्तों के अनुरोध से शरीर धारण करते हैं; निर्गुण, इच्छारहित और समस्त तेजों के कारण हैं तथा इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिए ही आविर्भूत हुए हैं। श्रीकृष्ण ने पूछा- विप्रवर! जब सभी शरीरधारियों के लिए कुशल प्रश्न अभीष्ट होता है, तब भला मेरे विषय में वह कुशल-प्रश्न क्यों नहीं है? सनत्कुमार जी बोले- नाथ! प्राकृत शरीर के विषय में कुशल प्रश्न करना तो सर्वदा शुभदायक है; परंतु जो शरीर नित्य और मंगल का कारण है, उसके विषय में कुशल प्रश्न निरर्थक है। श्रीभगवान ने कहा- विप्रवर! जो-जो शरीरधारी है, वह-वह प्राकृतिक कहा जाता है; क्योंकि उस नित्या प्रकृति के बिना शरीर बन ही नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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