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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 68-69
श्रीकृष्ण को व्रज में जाते देख राधा का विलाप एवं मूर्च्छा, श्रीहरि का उन्हें समझाना, श्रीराधा के सो जाने पर ब्रह्मा आदि देवताओं का आना और स्तुति करके श्रीकृष्ण को मथुरा जाने के लिए प्रेरित करना, श्रीकृष्ण का जाना, श्रीराधा का उठना और प्रियतम के लिए विलाप करके मूर्च्छित होना, श्रीकृष्ण का लौटकर आना, रत्नमाला का श्रीकृष्ण को राधा की अवस्था बताना, श्रीकृष्ण का राधा के लिए स्वप्न में मिलने का वरदान देकर व्रज में जाना श्री नारायण कहते हैं- नारद! पुरातन परमेश्वर श्यामसुंदर श्रीकृष्ण ने पुष्पशय्या से उठकर निद्रा में निमग्न हुई अपनी प्राणोपमा प्रियतमा श्रीराधा को तत्काल ही जगाया। वस्त्र के अञ्चल से उनके मुँह को पोंछ निर्मल करके मधुसूदन ने मधुर एवं शान्त वाणी में उनसे कहा। श्रीकृष्ण बोले- पवित्र मुस्कान वाली रासेश्वरि! व्रजस्वामिनी! क्षणभर रासमण्डल में ही ठहरो अथवा वृन्दावन में घूमो या गोष्ठ में ही चली जाओ। अथवा तुम रास की अधिष्ठात्री देवी हो; इसलिए क्षणभर इस रासमण्डल में ही रासरस का आस्वादन करो। जैसे ग्राम-ग्राम में सर्वत्र ग्राम देवता रहते हैं, उसी तरह रासेश्वरी को रास में सदा रहना चाहिए। अथवा सुंदरि! तुम अपनी प्यारी सखियों के साथ क्षणभर के लिए चंदनवन या चम्पकवन में घूम आओ, या यहीं रहो; मैं कुछ क्षण के लिए घर को जाऊँगा, वहाँ मुझे एक विशेष कार्य करना है; अतः प्राणवल्लभे! थोड़ी देर के लिए प्रसन्नतापूर्वक मुझको छुट्टी दे दो। तुम मेरे प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हो। तुममें ही मेरे प्राण बसते हैं। प्रिये! प्राणी अपने प्राणों को छोड़कर कहाँ ठहर सकता है? तुममें ही सदा मेरा मन लगा रहता है, तुमसे बढ़कर प्यारी मेरे लिए दूसरी कोई नहीं है। केवल तुम्हीं मुझे शंकर से अधिक प्रिय हो। यह सत्य है शंकर मेरे प्राण हैं; परंतु सती राधे! तुम तो प्राणों से भी बढ़कर हो। यों कहकर भगवान वहाँ से जाने को उद्यत हुए। वे सर्वज्ञ और सब कुछ सिद्ध करने वाले हैं। सबके आत्मा, पालक और उपकारक हैं। उन्होंने अक्रूर का आगमन जानकर व्रज में जाने का विचार किया। श्रीकृष्ण का मन बँट गया है; वे अन्यत्र जाने को उत्सुक हैं; यह देख राधिका देवी व्यथित हृदय से बोलीं। राधिका ने कहा- हे नाथ! हे रमणश्रेष्ठ! प्रिय लगने वाले मेरे समस्त संबंधियों में तुम्हीं श्रेष्ठ हो। प्राणनाथ! मैं देखती हूँ, इस समय तुम्हारा मन बँटा हुआ है। तुम्हारे चले जाने पर मेरा प्रेम और सौभाग्य सब कुछ लुट जाएगा। मुझे शोक के गहरे समुद्र में डालकर तुम कहाँ चले जा रहे हो? मैं विरह से व्याकुल हूँ, दीन हूँ और तुम्हारी ही शरण में आयी हूँ। अब मैं फिर घर को नहीं लौटूँगी; दूसरे वन में चली जाऊँगी और दिन-रात ‘कृष्ण! कृष्ण!’ का गान करती रहूँगी अथवा किसी वन में भी नहीं जाऊँगी, प्रेम के समुद्र में प्रवेश करूँगी और मन में केवल तुम्हारी कामना लेकर शरीर को त्याग दूँगी। जैसे आकाश, आत्मा, चंद्रमा और सूर्य सदा साथ रहते हैं; उसी तरह तुम मेरे आँचल में बँधकर सदा पास ही रहते और साथ-साथ घूमते हो; किंतु दीनवत्सल! इस समय तुम मुझे निराश करके जा रहे हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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