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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 70
अक्रूर जी के शुभ स्वप्न तथा मंगलसूचक शकुन का वर्णन, उनका रासमण्डल और वृन्दावन का दर्शन करते हुए नन्दभवन में जाना, नन्द द्वारा उनका स्वागत सत्कार, उन्हें श्रीकृष्ण के विविध रूपों में दर्शन, उनके द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति तथा श्रीकृष्ण को मथुरा चलने की सलाह देना, गोपियों द्वारा अक्रूर का विरोध और उनके रथ का भञ्जन, श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना और आकाश से दिव्य रथ का आगमन भगवान नारायण कहते हैं- नारद! कंस से व्रज में जाने की आज्ञा पाकर अक्रूर जी अपने घर गये और उत्तम मिष्टान्न खाकर शय्या पर सोये। उन्होंने सुवासित जल पीकर कपूर मिला हुआ पान खाया और सुखपूर्वक निद्रा ली। तदनन्तर रात के पिछले पहर में जबकि बाजे आदि की ध्वनि नहीं होती थी; उन्होंने एक सुंदर सपना देखा। ऐसा सपना, जिसकी पुराणों और श्रुतियों में प्रशंसा की गयी है। अक्रूर जी नीरोग थे। उनकी शिखा बँधी हुई थी। उन्होंने दो वस्त्र धारण कर रखे थे। वे सुंदर शय्या पर सोये थे। उनके मन में उत्तम स्नेह उमड़ रहा था और वे चिन्ता तथा शोक से रहित थे। मुने! उन्होंने स्वप्न में पहले एक ब्राह्मण बालक को देखा, जिसकी किशोर अवस्था और अंगकांति श्याम थी। वह दो भुजाओं से विभूषित था। उसके हाथों में मुरली थी। वह पीत वस्त्र धारण करके वनमाला से सुशोभित था। उसके सारे अंग चंदन से चर्चित थे। मालती की माला उसके शोभा बढ़ाती थी। वह भूषण के योग्य और उत्तम मणिरत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित था। उसके मस्तक पर मोरपंख का मुकुट शोभा दे रहा था। मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही थी और नेत्र कमलों की शोभा को लज्जित कर रहे थे। इसके बाद उन्होंने पति और पुत्रों से युक्त, पीताम्बरधारिणी तथा रत्नमय आभूषणों से विभूषित एक सुंदरी सती को देखा, जिसके एक हाथ में जलता दीपक था और दूसरे में श्वेत धान्य। उसका मुख शरद्-ऋतु के चंद्रमा को तिरस्कृत कर रहा था। वह सुंदरी सती मुस्कराती हुई वर देने को उद्यत थी। इसके बाद उन्हें शुभाशीर्वाद देते हुए एक ब्राह्मण, श्वेत कमल, राजहंस, अश्व तथा सरोवर के दर्शन हुए। उन्होंने फल और फूलों से लदे हुए आम, नीम, नारियल, विशाल आक और केले के वृक्ष का सुंदर एवं मनोहर चित्र भी देखा। उन्हें यह भी दिखाई दिया कि सफेद साँफ मुझे काट रहा है और मैं पर्वत पर खड़ा हूँ। उन्होंने कभी अपने को वृक्ष पर, कभी हाथी पर, कभी नाव पर और कभी घोड़े की पीठ पर बैठे देखा। कभी देखा कि मैं वीणा बजा रहा हूँ और खीर खा रहा हूँ। कमल के पत्ते पर परोसा हुआ प्रिय अन्न दही, दूध के साथ ले रहा हूँ। कभी देखा कि मेरे अंगों में कीड़े और विष्ठा लग गये हैं और मैं रोता-रोता मोहित हो रहा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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