ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 44
तत्पश्चात दुर्गा ने भी दण्ड की भाँति भूमि पर लेटकर नमस्कार किया। तब बालक ने सबको अभीष्टप्रद आशीर्वाद दिया। उसे देखकर सभी बालक भय के कारण महान आश्चर्य में पड़ गये। तदनन्तर शिव जी ने भक्तिपूर्वक उसे षोडशोपचार समर्पित करके उस परिपूर्णतम की वेदोक्त-विधि से पूजा की और फिर सिर झुकाकर काण्वशाखा में कहे हुए स्तोत्र द्वारा उन सनातन भगवान की स्तुति की। उस समय उनके सर्वांग में रोमांच हो आया था। पुनः जो रत्नसिंहासन पर आसीन थे और अपने उत्कृष्ट तेज से जिन्होंने सबको आच्छादित कर रखा था, उन वामन भगवान से स्वयं शंकर जी कहने लगे। शंकर जी ने कहा– ब्रह्मन! जो आत्माराम हैं, उनके विषय में कुशलप्रश्न करना अत्यन्त विडम्बना की बात है; क्योंकि वे स्वयं कुशल के आधार और कुशल-अकुशल के प्रदाता हैं। श्रीकृष्ण की सेवा के फलोदय से आज आप जो मुझे अतिथिरूप से प्राप्त हुए हैं, इससे मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया। कृपासागर परिपूर्णतम श्रीकृष्ण लोगों के उद्धार के लिये पुण्यक्षेत्र भारत में अपनी कला से अवतीर्ण हुए हैं। जिसने अतिथि का आदर-सत्कार किया है, उसने मानो सम्पूर्ण देवताओं की पूजा कर ली; क्योंकि जिस पर अतिथि प्रसन्न हो जाता है, उस पर स्वयं श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं। समस्त तीर्थों में स्नान करने से, सर्वस्व दान करने से, सभी प्रकार के व्रतोपवास से, सम्पूर्ण यज्ञों में दीक्षा ग्रहण करने से, सभी प्रकार की तपस्याओं से और नित्य-नैमित्तिकादि विविध कर्मानुष्ठानों से जो फल प्राप्त होता है– वह अतिथिसेवा की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकता। अतिथि जिसके गृह से निराश एवं रुष्ट होकर चला जाता है, उसका पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है। श्रीनारायण कहते हैं– नारद! शंकर के वचन सुनकर जगत्पति स्वयं श्रीहरि संतुष्ट हो गये और मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा उनसे बोले। विष्णु ने कहा– शिव जी! आप लोगों के कोलाहल को जानकर कृष्ण भक्त परशुराम की रक्षा करने के लिये इस समय मैं श्वेतद्वीप से आ रहा हूँ; क्योंकि इन कृष्ण भक्तों का कहीं अमंगल नहीं होता। गुरु के कोप के अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं में मैं हाथ में चक्र लेकर उनकी रक्षा करता हूँ। गुरु के रुष्ट होने पर मैं रक्षा नहीं करता; क्योंकि गुरु की अवहेलना बलवती होती है। जो गुरु की सेवा से हीन है, उससे बढ़कर पापी दूसरा नहीं है। अहो! जिसकी कृपा से मानव सब कुछ देखता है, वह पिता सबके लिये सबसे बढ़कर माननीय और पूजनीय है। वह मनुष्यों के जन्म देने के कारण जनक, रक्षा करने के कारण पिता और विस्तीर्ण करने के कारण कलारूप से प्रजापति है। उस पिता से माता गर्भ में धारण करने एवं पालन-पोषण करने से सौगुनी बढ़कर वन्दनीया, पूज्या और मान्या है। अन्नदाता माता से भी सौगुना वन्दनीय, पूज्य और मान्य है; क्योंकि अन्न के बिना शरीर नष्ट हो जाता है और विष्णु ही कलारूप से अन्नदाता होते हैं। अभीष्टदेव अन्नदाता से भी सौगुना श्रेष्ठ कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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