ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 44
मातः! तुम्हारे पुत्र गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननाशक, लम्बोदर, शूर्पकर्ण, गजवक्त्र और गुहाग्रज– ये आठ नाम हैं। इन आठों नामों का अर्थ सुनो। शिवप्रिये! यह उत्तम स्तोत्र सभी स्तोत्रों का सारभूत और सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करने वाला है। ‘ग’ ज्ञानार्थवाचक और ‘ण’ निर्वाणवाचक है। इन दोनों (ग+ण)– के जो ईश हैं; उन परब्रह्म ‘गणेश’ को मैं प्रणाम करता हूँ। ‘एक’ शब्द प्रधानार्थक है और ‘दन्त’ बलवाचक है; अतः जिनका बल सबसे बढ़कर है; उन ‘एकदन्त’ को मैं नमस्कार करता हूँ। ‘हे’ दीनार्थवाचक और ‘रम्ब’ पालक का वाचक है; अतः दीनों का पालन करने वाले ‘हेरम्ब’ को मैं शीश नवाता हूँ। ‘विघ्न’ विपत्तिवाचक और ‘नायक’ खण्डनार्थक है, इस प्रकार जो विपत्ति के विनाशक हैं; उन ‘विघ्ननायक’ को मैं अभिवादन करता हूँ। पूर्वकाल में विष्णु द्वारा दिये गये नैवेद्यों तथा पिता द्वारा समर्पित अनेक प्रकार के मिष्टान्नों के खाने से जिनका उदर लम्बा हो गया है; उन ‘लम्बोदर’ की मैं वन्दना करता हूँ। जिनके कर्ण शूर्पाकार, विघ्न-निवारण के हेतु, सम्पदा के दाता और ज्ञानरूप हैं; उन ‘शूर्पकर्ण’ को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनके मस्तक पर मुनि द्वारा दिया गया विष्णु का प्रसादरूप पुष्प वर्तमान है और जो गजेन्द्र के मुख से युक्त हैं; उन ‘गजवक्त्र’ को मैं नमस्कार करता हूँ। जो गुह (स्कन्द)– से पहले जन्म लेकर शिव-भवन में आविर्भूत हुए हैं तथा समस्त देवगणों में जिनकी अग्रपूजा होती है; उन ‘गुहाग्रज’ देव की मैं वन्दना करता हूँ। दुर्गे! अपने पुत्र के नामों से संयुक्त इस उत्तम नामाष्टक स्तोत्र को पहले वेद में देख लो, तब ऐसा क्रोध करो। जो इस नामाष्टक स्तोत्र का, जो नाना अर्थों से संयुक्त एवं शुभकारक है, नित्य तीनों संध्याओं के समय पाठ करता है, वह सुखी और सर्वत्र विजयी होता है। उसके पास से विघ्न उसी प्रकार दूर भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ के निकट से साँप। गणेश्वर की कृपा से वह निश्चय ही महान ज्ञानी हो जाता है, पुत्रार्थी को पुत्र और भार्या की कामनावाले को उत्तम स्त्री मिल जाती है तथा महामूर्ख निश्चय ही विद्वान और श्रेष्ठ कवि हो जाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विष्णुरुवाच –
गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननायकम्। लम्बोदरं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं गुहाग्रजम्।।
नामाष्टार्थं च पुत्रस्य श्रृणु मातर्हरप्रिये। स्तोत्राणां सारभूतं च सर्वविघ्नहरं परम्।।
ज्ञानार्थवाचको गश्च णश्च निर्वाणवाचकः। तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम्।।
एकशब्दः प्रधानार्थो दन्तश्च बलवाचकः। बलं प्रधानं सर्वस्मादेकदन्तं नमाम्यहम्।।
दीनार्थवाचको हेश्च रम्बः पालकवाचकः। दीनानां परिपालकं हेरम्बं प्रणमाम्यहम्।।
विपत्तिवाचको विघ्नो नायकः खण्डनार्थकः। विपत्खण्डनकारकं नमामि विघ्नायकम्।।
विष्णुदत्तैश्च नैवेद्यैर्यस्य लम्बोदरं पुरा। पित्रा दत्तैश्च विविधैर्वन्दे लम्बोदरं च तम्।।
शूर्पाकारौ च यत्कर्णौ विघ्नवारणकारणौ। सम्पदौ ज्ञानरूपौ च शूर्पकर्णं नमाम्यहम्।।
विष्णुप्रसादपुष्पं च यन्मूर्ध्नि मुनिदत्तकम्। तद् गजेन्द्रवक्त्रयुक्तं गजवक्त्रं नमाम्यहम्।।
गुहस्याग्रे च जातोऽयमाविर्भूतो हरालये। वन्दे गुहाग्रजं देवं सर्वदेवाग्रपूजितम्।।
एतन्नामाष्टकं दुर्गे नामभिः संयुतं परम्। पुत्रस्य पश्य वेदे च तदा कोपं तथा कुरु।।
ततो विघ्नाः पलायन्ते वैनतेयाद् यथोरगाः। गणेश्वरप्रसादेन महाज्ञानी भवेद् ध्रुवम्।।
पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्यार्थी विपुलां स्त्रियम्। महाजडः कवीन्द्रश्च विद्यावांश्च भवेद् ध्रुवम्।। (गणपतिखण्ड 44। 85-98)
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