ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड : अध्याय 6
देवर्षि गणों के साथ स्वयं नारायण ने भोजन किया। उस समय एक लाख ब्राह्मण परोसने का काम कर रहे थे। (भोजन कर लेने के पश्चात) जब वे रत्नसिंहासनों पर विराजमान हुए, तब परम चतुर लाखों ब्राह्मणों ने उन्हें कर्पूर आदि से सुवासित पान के बीड़े समर्पित किये। ब्रह्मन! देवर्षियों से भरी हुई उस सभा में जब क्षीरसागरशायी भगवान विष्णु रत्नसिंहासन पर आसीन थे, प्रसन्न मुख वाले पार्षद उन पर श्वेत चँवर डुला रहे थे, ऋषि, सिद्ध तथा देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे, वे गन्धर्वों के मनोहर गीत सुन रहे थे, उसी समय ब्रह्मा की प्रेरणा से शंकर जी ने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक उन ब्रह्मेश से अपने अभीष्य कर्तव्य व्रत के विषय में प्रश्न किया। श्रीमहादेव जी ने पूछा– प्रभो! आप श्रीनिवास, तपःस्वरूप, तपस्याओं और कर्मों के फलदाता, सबके द्वारा पूजित, सम्पूर्ण व्रतों, जब-यज्ञों और पूजनों के बीजरूप से वांछाकल्पतरु और पापों का हरण करने वाले हैं। नाथ! मेरी एक प्रार्थना सुनिये। ब्रह्मन! पुत्रशोक से पीड़ित हुई पार्वती का हृदय दुःखी हो गया है, अतः वह पुत्र की कामना से परमोत्तम पुण्यक-व्रत करना चाहती है। वह सुव्रता व्रत के फलस्वरूप में उत्तम पुत्र और पति-सौभाग्य की याचना कर रही है। इनके बिना उसे संतोष नहीं है। प्राचीन काल में इस मानिनी ने अपने पिता के यज्ञ में मेरी निन्दा होने के कारण अपने शरीर का त्याग कर दिया था और अब पुनः हिमालय के घर में जन्म धारण किया है। यह सारा वृत्तान्त तो आप जानते ही हैं, आप सर्वज्ञ को मैं क्या बतलाऊँ। तत्त्वज्ञ! इस विषय में आपकी क्या आज्ञा है? आप परिणाम में शुभप्रदायिनी अपनी वह आज्ञा बतलाइये। नाथ! मैंने सब कुछ निवेदन कर दिया है, अब जो कर्तव्य हो, उसे बताने की कृपा कीजिये; क्योंकि परामर्शपूर्वक किया हुआ सारा कार्य परिणाम में सुखदायक होता है। श्रीनारायण जी कहते हैं– नारद! उस सभा में यों कहकर भगवान शंकर ने कमलापति विष्णु की स्तुति की और फिर ब्रह्मा के मुख की ओर देखकर वे चुप हो गये। शंकर जी का वचन सुनकर जगदीश्वर विष्णु ठठाकर हँस पड़े और हितकारक तथा नीतिपूर्ण वचन कहने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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