ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 6
श्रीविष्णु ने कहा– पार्वतीश्वर! आपकी पत्नी सती संतान-प्राप्ति के लिये इस उत्तम पुण्यक-व्रत को करना चाहती है, वह व्रतों का सारतत्त्व, स्वामि-सौभाग्य का बीज, सबके द्वारा असाध्य, दुराराध्य, सम्पूर्ण अभीष्ट फल का दाता, सुखदायक, सुख का सार तथा मोक्षप्रद है। जो सबके आत्मा, साक्षीस्वरूप, ज्योतिरूप, सनातन, आश्रयरहित, निर्लिप्त, उपाधिहीन, निरामय, भक्तों के प्राणस्वरूप, भक्तों के ईश्वर, भक्तों पर अनुग्रह करने वाले, दूसरों के लिये दुराराध्य, परंतु भक्तों के लिये सुसाध्य, भक्ति के वशीभूत, सर्वसिद्ध और कलारहित हैं, ये ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जिन पुरुष की कलाएँ हैं, महान विराट जिनका एक अंश है, जो निर्लिप्त, प्रकृति से परे, अविनाशी, निग्रहकर्ता, उग्रस्वरूप, भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रहस्वरूप, ग्रहों में उग्र ग्रह और ग्रहों का निग्रह करने वाले हैं, वे भगवान आपके बिना करोड़ों जन्मों में भी साध्य नहीं हो सकते। सूर्य, शिव, नारायणी माया, कला आदि की दीर्घकाल तक उपासना करने के बाद मनुष्य भक्त-संसर्ग की हेतुस्वरूपा कृष्ण भक्ति को पाता है। शिव जी! उस निष्पक्व भक्ति को पाकर भारतवर्ष में बारंबार भ्रमण करते हुए जब भक्तों की सेवा करने से उसकी भक्ति परिपक्व हो जाती है, तब भक्तों की कृपा से तथा देवताओं के आशीर्वाद से उसे श्रीकृष्ण मन्त्र प्राप्त होता है, जो परमोत्कृष्ट निर्वाणरूप फल प्रदान करने वाला है। कृष्णव्रत और कृष्णमन्त्र सम्पूर्ण कामनाओं के फल के प्रदाता हैं। चिरकाल तक श्रीकृष्ण की सेवा करने से भक्त श्रीकृष्ण-तुल्य हो जाता है। महाप्रलय के अवसर पर समस्त प्राणियों का विनाश हो जाता है– यह सर्वथा निश्चित है; परंतु जो कृष्ण भक्त हैं, वे अविनाशी हैं। उन साधुओं का नाश नहीं होता। शिव जी! श्रीकृष्णभक्त अत्यन्त निश्चिन्त होकर अविनाशी गोलोक में आनन्द मनाते हैं। महेश्वर! आप सबका संहार करने वाले हैं, परंतु कृष्णभक्तों पर आपका वश नहीं चलता। उसी प्रकार माया सबको मोहग्रस्त कर लेती है, परंतु मेरी कृपा से वह भक्तों को नहीं मोह पाती। नारायणी माया समस्त प्राणियों की माता है। वह कृष्णभक्ति का दान करने वाली है, वह नारायणी माया मूलप्रकृति, अधीश्वरी, कृष्णप्रिया, कृष्णभक्ता, कृष्णतुल्या, अविनाशिनी, तेजःस्वरूप और स्वेच्छानुसार शरीर धारण करने वाली है। (दैत्यों द्वारा) सुरनिग्रह के अवसर पर वह देवताओं के तेज से प्रकट हुई थी। उसने दैत्यसमूहों का संहार करके दक्ष के अनेक जन्मों की तपस्या के फलस्वरूप भारतवर्ष में दक्षपत्नी के गर्भ से जन्म लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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