ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 27-28
अत्यन्त उत्तम अथवा मध्यम श्रेणी का भी नगर प्रजाओं से सम्पन्न हो, वापी, तड़ाग तथा भाँति-भाँति के वृक्ष जिसकी शोभा बढ़ाते हों, ऐसे सौ नगर ब्राह्मण को दान करने वाला पुण्यात्मा वैकुण्ठलोक में सुप्रतिष्ठित होता है। जैसे इन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर स्वर्गलोक में शोभा पाते हैं, वैसे ही भूमण्डल पर उस पुरुष की शोभा होती है। दीर्घकाल तक पृथ्वी उसका साथ नहीं छोड़ती। वह महान सम्राट होता है। अपना सम्पूर्ण अधिकार ब्राह्मण को देने वाला पुरुष चौगुने फल का भागी होता है; इसमें संशय नहीं है। पतिव्रते! जो पुरुष ब्राह्मण को जम्बूद्वीप का दान करता है, उसे निश्चित रूप से सौगुने फल प्राप्त होते हैं। जो सातों द्वीपों की पृथ्वी का दान करने वाले, सम्पूर्ण तीर्थों में निवास करने वाले, समस्त तपस्याओं में संलग्न, सम्पूर्ण उपवास-व्रत के पालक, सर्वस्व दान करने वाले तथा सम्पूर्ण सिद्धियों के पारंगत तथा श्रीहरि के भक्त हैं, उन्हें पुनः जगत में जन्म धारण करना नहीं पड़ता। उनके सामने असंख्य ब्रह्माओं का पतन हो जाता है, परंतु वे श्रीहरि के गोलोक या वैकुण्ठधाम में निवास करते रहते हैं। विष्णु-मन्त्र की उपासना करने वाले पुरुष अपने मानव शरीर का त्याग करने के पश्चात् जन्म, मृत्यु एवं जरा से रहित दिव्य रूप धारण करके श्रीहरि का सारूप्य पाकर उनकी सेवा में संलग्न हो जाते हैं। देवता, सिद्ध तथा अखिल विश्व-ये सब-के-सब समयानुसार नष्ट हो जाते हैं, किंतु श्रीकृष्ण भक्तों का कभी नाश नहीं होता। जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था उनके निकट नहीं आ सकती। जो पुरुष कार्तिक मास में श्रीहरि को तुलसी अर्पण करता है, वह पत्र-संख्या के बराबर युगों तक भगवान के धाम में विराजमान होता है। फिर उत्तम कुल में उसका जन्म होता और निश्चित रूप से भगवान के प्रति उसके मन में भक्ति उत्पन्न होती है, वह भारत में सुखी एवं चिरंजीवी होता है। जो कार्तिक में श्रीहरि को घी का दीप देता है, वह जितने पल दीपक जलता है, उतने वर्षों तक हरिधाम में आनन्द भोगता है। फिर अपनी योनि में आकर विष्णुभक्ति पाता है; महाधनवान नेत्र की ज्योति से युक्त तथा दीप्तिमान होता है। जो पुरुष माघ में अरुणोदय के समय प्रयाग की गंगा में स्नान करता है, उसे दीर्घकाल तक भगवान श्रीहरि के मन्दिर में आनन्द लाभ करने का सुअवसर मिलता है। फिर वह उत्तम योनि में आकर भगवान श्रीहरि की भक्ति एवं मन्त्र पाता है; भारत में जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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