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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
(36)'मा शुच:'[1]- ये दो क्रियाएं दिवादिगणकी 'ईशु चिर् पूतीभावो' धातु के लुङ् लकार के रूप हैं। (37)‘इको ह्रस्वोऽङ्यो गालवस्य’[2]- अर्थात् उत्तरपद के आगे रहने पर ङीप्-रहित ‘इक्’ अंग को विकल्प से ह्रस्व हो जाता है; जैसे- ग्रामण्यः पुत्रः = ग्रामणिपुत्रः = ग्रामणीपुत्रः। इस उदाहरण में ‘ग्रामणी’ शब्द ङीप् रहित है; अतः यहाँ उपर्युक्त सूत्र से ह्रस्व हो जाता है। गीता में भी ‘काशिराजः’ और ‘कुन्तिभोजः’[3]- इन दो शब्दों में उपर्युक्त सूत्र से ह्रस्व हुई दीखता है, पर इन दो शब्दों में उपर्युक्त सूत्र से ह्रस्व नहीं हो सकता; क्योंकि इन दोनों शब्दों में मूल में ही ह्रस्व इकार है। ऐसे तो ये दोनों शब्द ह्रस्व और दीर्घ (काशि-काशी, कुन्ति-कुन्ती) दोनों प्रकार के हैं, पर गीता में इनको ह्रस्व ही माना गया है। अगर इन दोनों शब्दों को दीर्घ ईकारान्त मानकर ह्रस्व करना चाहें तो ह्रस्व नहीं होगा; क्योंकि दीर्घ ‘काशी’ और ‘कुन्ती’ शब्द ङीबन्त होने से उपर्युक्त सूत्र से ह्रस्व नहीं होगा।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 16।5;18।66)
- ↑ (पाणि. अ. 6।3।61)
- ↑ (1।5-6)
- ↑ गीता संबंधी व्याकरण के इस लेख में कहीं-कहीं ‘लघुसिद्धान्तकौमुदी’ की ‘भैमी व्याख्या’ से सहायता ली गयी है।
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