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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
105. गीता संबंधी व्याकरण की कुछ बातें
(32)‘अनुशुश्रुम’[1]- जो नेत्रों से न देखा गया हो, वह परोक्ष होता है और परोक्षार्थ में ही ‘लिट्’ लकार होता है, फिर भी अर्जुन यहाँ परोक्ष ‘लिट्’ का प्रयोग कर रहे हैं, जो नहीं करना चाहिए था। परंतु शोकाविष्ट होने के कारण अर्जुन ने इस पद में परोक्ष ‘लिट्’ का क्रिया का प्रयोग किया है। (33)‘कौरव्य’ शब्द के बहुवचन में ‘तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्रियाम्’[2]- इस सूत्र से ‘ण्य’ प्रत्यय का लोप होने से ‘कुरून्’[3] शब्द बन जाता है, जो कुरुवंशियों का वाचक होता है। (34)‘पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्’[4]- इस सूत्र से ‘भविष्यत्’ शब्द के ‘त्’- कार का लोप होने से ‘भविष्याणि’[5] रूप बन जाता है। (35)‘चातुर्वर्ण्यम्’[6]- ‘चत्वारोवर्णाश्चतुवर्ण्यम्’ – यहाँ पर ‘चतुर्वर्णादीनां स्वार्थे उपसंख्यानम्’ इस वार्तिक से स्वार्थ में ‘ष्यञ्’ प्रत्यय किया गया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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