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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
93. गीता में ‘यत्’ शब्द के दो बार प्रयोग का तात्पर्य
5. ‘यं यं वापि स्मरन्भावं.......’[1]- भगवान् ने जीव को संपूर्ण जन्मों का अंत करने वाला यह अंतिम मनुष्य शरीर देकर यह स्वतंत्रता दी है कि वह जीवन भर साधन करके, मेरी शरण होकर आगे होने वाले संपूर्ण जन्मों का अंत कर ले, संपूर्ण बंधनों से मुक्त हो जाय। अगर यह चेत जीवनभर नहीं भी हुआ, तो भी कोई बात नहीं, वह अंतकाल में भी मेरा स्मरण कर ले, तो मेरे को प्राप्त हो जाएगा! कारण कि जीव अंतकाल में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उस स्मरण के अनुसार उस-उस भाव अर्थात् योनि आदि को ही प्राप्त होता है। यह भगवान् की दयालुता ही है कि जिस अंतकालीन चिंतन से अन्य (कुत्ते आदि की) योनि आदि की प्राप्ति हो जाय, उसी अंतकालीन चिंतन से (भगवान् का चिंतन करने से) भगवान् की प्राप्ति हो जाय। 6. ‘यत् यत् विभूतिमत्सत्त्वं......’[2]- सब साधकों के भाव, रुचि, श्रद्धा, स्वभाव आदि भिन्न-भिन्न होते हैं; अतः किसी को किसी में महत्ता दीखती है तो किसी को किसी में महत्ता दीखती है। इसलिए भगवान् ने विभूति के रूप में अपने चिन्तन में साधकों को स्वतंत्रता दी है कि साधक को जिस किसी में, जहाँ-जहाँ, जब-जब कोई महत्ता दीखती है, विशेषता दीखती है, उस महत्ता, विशेषता को उसकी न समझकर मेरी ही समझे। तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि मेरी तरफ ही जानी चाहिए, वस्तु, व्यक्ति आदि की तरफ नहीं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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