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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
93. गीता में ‘यत्’ शब्द के दो बार प्रयोग का तात्पर्य
3. ‘यतो यतो निश्चरति.....’[1]- यहाँ ‘यतः यतः’ पदों में केवल ‘जहाँ-जहाँ से’- यह पञ्चमी का अर्थ ही नहीं है, प्रत्युत यह अर्थ है कि मन जब-जब, जहाँ-जहाँ, जिस-जिस प्रयोजन के लिए और जैसे-जैसे चला जाय, तब-तब मन को वहाँ से हटाकर परमात्मा में लगाना चाहिए। यहाँ यह बात साधक की विशेष सावधानी, सजगता के लिए कही गयी है क्योंकि साधक की सावधानी ही सिद्धि में कारण है। 4. ‘यो यो यां यां तनुं भक्तः......’[2]- यहाँ ‘यः यः’ पदों से उपासक की और ‘यां यां’ पदों से उपास्य की बात बतायी गयी है कि जो-जो उपासक जिस-जिस उपास्य का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस साधक की श्रद्धा को भगवान् उस-उस उपास्य के प्रति दृढ़ करते हैं। ऐसा कहने में भगवान् का यह तात्पर्य मालूम देता है कि मैं सभी उपासकों को केवल अपनी तरफ ही नहीं खींचता हूँ, अपना पक्ष ही नहीं रखता हूँ, प्रत्युत मैं यह देखता हूँ कि उपासक की रुचि, श्रद्धा किस उपास्य में है। अंतर्यामी और सर्वसमर्थ होते हुए भी मैं उस उपासक को वहाँ से विचलित न करके, उसकी श्रद्धा को वहाँ से न हटाकर उसी उपास्य में उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ। भगवान् की इस अत्यंत कृपालुता को समझकर उपासक का आकर्षण, खिंचाव, श्रद्धा, प्रेम केवल भगवान् में ही होना चाहिए; क्योंकि जीव का कल्याण, हित वास्तव में भगवान् की तरफ चलने में ही है। उसको विचार करना चाहिए कि जब भगवान् कृपावश होकर मेरी ही रुचि रखते हैं, तो फिर मुझे भी भगवान् की ही रुचि रखनी चाहिए, क्योंकि भगवान् के समान दयालु, हितैषी और कौन होगा तथा कौन हो सकता है? तात्पर्य है कि भगवान् के इस निष्पक्ष व्यवहार से उनकी निर्लिप्तता, कृपालुता और प्राणिमात्र के प्रति हितैषिता का ही ज्ञान होता है। उपर्युक्त पदों से एक और बात मालूम होती है कि उपासना में उपासक की रुचि, श्रद्धा ही मुख्य है। वह किसी की भी उपासना कर सकता है; इसमें वह स्वतंत्र है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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