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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
75. गीता में सिद्धों के लक्षण
तीनों ही योगी से सिद्ध महापुरुष अंहता ममता से रहित हो जाते हैं।[1] तीनों ही सिद्धों में राग-द्वेष का अभाव हो जाता है।[2] तीनों में ही समता रहती है।[3] भक्तियोग में सब कुछ वासुदेव ही हैं[4] ऐसा अनुभव होने से प्राणिमात्र के प्रति मित्रता और करुणा का भाव विशेषता से प्रकट होता है,[5] जबकि कर्मयोग और ज्ञानयोग में वैसा नहीं होता। कोई भी साधक किसी भी मार्ग से चले, अंत में उसकी पूर्णता होने पर सब एक हो जाते हैं। ऐसा होने पर भी कर्मयोगी को ज्ञानयोग की बातें विशेषरूप से समझ में आ जाती हैं और भक्तियोग की बातें साधारणरूप से (थोड़ी) समझ में आती हैं। ज्ञानयोगी को कर्मयोग और भक्तियोग- इन दोनों की ही बातों का ज्ञान नहीं होता; परंतु भक्तियोगी को कर्मयोग और ज्ञानयोग- इन दोनों का ही बातों का प्रायः ज्ञान हो जाता है। कर्मयोग में कामनाओं के त्याग की कुछ कमी रहने से और ज्ञानयोग में अपने में कुछ विशेषता दीखने से अभिमान रह सकता है; क्योंकि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी की अपनी निष्ठा होती है। अतः अभिमान को दूर करने की जिम्मेवारी खुद उन पर ही रहती है। परंतु भक्तियोगी में अभिमान रह ही नहीं सकता; क्योंकि वह पहले से ही भगवान् के परायण रहता है। हां, भगवत्परायणता में कमी रहने से भक्तियोगी में भी अभिमान रह सकता है, पर उस अभिमान को दूर करने की जिम्मेवारी भगवान् पर ही रहती है, भक्त पर नहीं क्योंकि वह भगवन्निष्ठ होता है। तात्पर्य है कि तीनों योगों की अपनी-अपनी मुख्यता होने से तीनों योग अगल-अलग हैं। ऐसा होने पर भी तत्त्व, समता, निर्विकारता आदि की प्राप्ति में तो तीनों योगों से सिद्ध महापुरुषों में एकता रहती है, पर उनके व्यवहार में भिन्नता रहती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (कर्मयोगी 2।71, ज्ञानयोगी 18।53, भक्तियोगी 12।13)
- ↑ (कर्मयोगी 2।57, ज्ञानयोगी 14।22, भक्तियोगी 12।17)
- ↑ (करमयोगी 6।7-9, ज्ञानयोगी 14।24-25, भक्तियोगी 12।18)
- ↑ (7।19)
- ↑ (12।13)
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