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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
67. गीता में आश्रय वर्णन
कई मनुष्य न तो भगवान् का आश्रय लेते हैं और न भगवान् को भगवान् रूप से ही जानते हैं। अतः ऐसे मनुष्यों में से कई तो आसुरभाव का आश्रय लेते हैं [1]; कई आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेते हैं [2]; कई कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं[3]; कई मृत्युपर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेते हैं[4]; कई अहंकार, दुराग्रह, घमंड, कामना और क्रोध का आश्रय लेते हैं।[5] इन आश्रयों के फलस्वरूप उनको बार-बार चौरासी लाख योनियों और नरकों में जाना पड़ता है।[6] भगवान् की ओर चलने वाले मनुष्य भगवान् का और उनके दया, क्षमा, समता आदि गुणों का (दैवी संपत्ति का) आश्रय लेते हैं तथा परिणाम में भगवान् को प्राप्त कर लेते हैं। अतः गीता में ‘मामुपाश्रिताः’[7]; ‘मदाश्रयः’[8]; ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते’[9]; ‘मामाश्रित्य यतन्ति ये’[10]; ‘मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य’[11]; ‘मद्वयपाश्रयः’[12]; ‘तमेव शरमं गच्छ’[13]; ‘मामेकं शरणं व्रज’[14] आदि पदों में भगवान् के आश्रय की बात कही गयी है और ‘दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः’[15] तथा ‘बुद्धियोगमुपाश्रित्य’[16] पदों में दैवी संपत्ति के आश्रय की बात कही गयी है।[17] तात्पर्य है कि गीता में जितने भी साधन बताये गये हैं, उन सबमें श्रेष्ठ और सुगम साधन भगवान् का आश्रय लेना ही है। जो भगवान् का आश्रय लेकर साधन करता है, उसके साधन की सिद्धि बहुत शीघ्र और सुगमतापूर्वक हो जाती है। इस बात को भगवान् ने गीता में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जो मेरे आश्रित होकर संपूर्ण कर्मों को मेरे में अर्पण करते हैं, उन भक्तों का मैं मृत्युरूप संसार समुद्र से बहुत जल्दी उद्धार करने वाला बन जाता है।[18] जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं, वे ब्रह्म, अध्यात्म और संपूर्ण कर्म तथा अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित मेरे को जान जाते हैं अर्थात् मेरे समग्र रूप को जान जाते हैं।[19] अपना आश्रय लेने वाले भक्तों को भगवान् ने संपूर्ण योगियों में श्रेष्ठ बताया है।[20] अतः साधकों को चाहिए कि वे जो भी साधन करें, भगवान् का आश्रय लेकर ही करें। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (7।15)
- ↑ (9।12)
- ↑ (16।10)
- ↑ (16।11)
- ↑ (16।18)
- ↑ (16।19-20)
- ↑ (4।10)
- ↑ (7।1)
- ↑ (7।14)
- ↑ (7।29)
- ↑ (9।32)
- ↑ (18।56)
- ↑ (18।66)
- ↑ (18।66)
- ↑ (9।13)
- ↑ (18।57)
- ↑ दैवी सम्पत्ति -(भगवान् के गुणो) का आश्रय लेना भी भगवान् का ही आश्रय लेना है।
- ↑ (12।6-7)
- ↑ (7।29-30)
- ↑ (6।47)
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