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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
64. गीता में नवधा भक्ति
5. अर्चन- जिससे संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जो सब में व्याप्त है, उस परमात्मा अपने कर्मों के द्वारा अर्चन (पूजन) करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है[1] तू मेरा पूजन करने वाला हो जा, फिर तू मेरे को ही प्राप्त होगा।[2] 6. वंदन- तू मेरे को नमस्कार कर, फिर तू मेरे को ही प्राप्त होगा[3] हे प्रभो आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो!! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो! नमस्कार हो!![4]; हे सर्वात्मन्! आपको आगे से, पीछे से, सब ओर से ही नमस्कार हो[5] हे प्रभो! मैं शरीर से लम्बा पड़कर आपको दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ।[6] 7. दास्य- तू मेरा भक्त हो जा, फिर तू मुझे ही प्राप्त होगा[7] हे कृष्ण! मैं आपका शिष्य (दास) हूँ[8] हे पार्थ! तू मेरा भक्त है[9] 8. सख्य- तू मेरा प्रिय सखा है[10] हे कृष्ण! जैसे सखा सखा के अपमान को सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है, ऐसे ही आप मेरे द्वारा किए गए अपमान को सहने में समर्थ हैं[11] 9. आत्मनिवेदन- उस आदिपुरुष परमात्मा की ही शरण में हो जाना चाहिए;[12] तू सर्वभाव से उसी अंतर्यामी परमात्मा की ही शरण में चला जा[13] तू सब धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जा।[14] उस प्रकार उपर्युक्त स्थलों में भगवान् ने साधन-भक्ति का वर्णन किया है; और ‘संसिद्धिं परमा गताः’,[15] ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’,[16] ‘भक्तिं मयि परां कृत्वा’[17]- इन पदों में भगवान् ने साध्य (परा) भक्ति का वर्णन किया है।[18] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (18।46)
- ↑ (9।34, 18।65)
- ↑ (9।34, 18।65)
- ↑ (11।39)
- ↑ (11।40)
- ↑ (11।44)
- ↑ (9।34, 18।65)
- ↑ (2।7)
- ↑ (4।3)
- ↑ (4।3)
- ↑ (11।44)
- ↑ (15।4)
- ↑ (18।62)
- ↑ (18।66)
- ↑ (8।15)
- ↑ (15।54)
- ↑ (18।68)
- ↑ साधन-भक्ति से साध्य भक्ति प्राप्त होती है।
‘भक्त्या संजातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा. 11।3।31)
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