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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
59. गीता में परमात्मा और जीवात्मा का स्वरूप
परमात्मा के सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार- इन तीनों रूपों के साथ जीवात्मा की तात्त्विक एकता और मानी हुई भिन्नता है। मानी हुई भिन्नता मिटने पर तात्त्विक एकता का स्वतः अनुभव हो जाता है। कई आचार्य जीवात्मा और परमात्मा में अभेद मानते हैं और कई आचार्य भेद मानते हैं। भेद मानने वाले आचार्य भी तात्त्विक भेद नहीं मान सकते। हाँ, वे ‘जीव अनेक हैं’- इस दृष्टि से जीवात्मा और परमात्मा में जातीय एकता कह देते हैं, पर वास्तव में यह तात्त्विक एकता ही है। कारण कि जाति वह होती है, जो एक होते हुए भी सबमें अलग-अलग रहे। चेतन तत्त्व एक ही है और उसमें कोई भेद (अनेकता) नहीं है, फिर उसमें जाति कैसे हो सकती है? अतः जीवात्मा और परमात्मा में तात्त्विक एकता है अर्थात् दोनों तत्त्वरूप से एक हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है और परमात्मा सर्वज्ञ है। जीवात्मा की अल्पज्ञता अविद्या के कारण है और परमात्मा की सर्वज्ञता उनकी शक्ति प्रकृति के कारण है। अगर जीवात्मा अविद्या को मिटा दे तो उसकी अल्पज्ञता नहीं रहेगी और अगर परमात्मा अपनी शक्ति की अपेक्षा कर दे, अपनी शक्ति की तरफ दृष्टि न डाले तो परमात्मा की सर्वज्ञता नहीं रहेगी। गीता शब्दमय ग्रंथ है अतः इस लेख में गीता के शब्दों को लेकर ही जीवात्मा और परमात्मा की एकता की गयी है। वास्तव में जीवात्मा और परमात्मा की तात्त्विक एकता किसी ग्रंथ आदि को लेकर नहीं है, प्रत्युत स्वतः सिद्ध है। अगर साधक किसी ग्रंथ को महत्त्व देता है तो वह उस ग्रंथ में वर्णित तत्त्व के साथ अभिन्न होने के लिए, उसमें अपने को लीन करने के लिए ही देता है। जब साधक में सांसारिक वस्तु, व्यक्ति आदि का महत्त्व नहीं रहता, तब तत्त्व से मानी हुई भिन्नता मिट जाती है अर्थात् परमात्मा से अपनी तात्त्विक एकता का अनुभव हो जाता है। तात्त्विक एकता का अनुभव होने पर व्यक्तित्व का अभिमान नहीं रहता क्योंकि वास्तविक तत्त्व में व्यक्तित्त्व का अभिमान नहीं है। लोगों की दृष्टि में तो वह योगी, ज्ञानी अथवा प्रेमी कहा जाता है, पर वास्तव में वह योगी, ज्ञानी और प्रेमी नहीं रहता, प्रत्युत वह योग-स्वरूप, ज्ञान-स्वरूप और प्रेम स्वरूप हो जाता है। तत्त्व से एक होने के बाद अर्थात् व्यक्तित्त्व का अभिमान मिटने के बाद योग और योगी, ज्ञान और ज्ञानी, प्रेम और प्रेमी- ये दो भेद नहीं रहते। जब तक दो भेद अर्थात् व्यक्तित्त्व का अभिमान है, तब तक तत्त्व के साथ एकता नहीं हुई। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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