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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
59. गीता में परमात्मा और जीवात्मा का स्वरूप
जीवात्मा को भी ‘ईश्वर’ कहा गया है[1]और सगुण-निराकार परमात्मा को भी ‘ईश्वर’ कहा गया है।[2] निर्गुण निराकार के साथ जीवात्मा की एकता- जीवात्मा को भी संपूर्ण जगत् में व्याप्त बताया गया है[3] और निर्गुण निराकार परमात्मा को भी संपूर्ण चराचर प्राणियों में व्याप्त बताया गया है।[4] जीवात्मा को नित्य, सर्वव्यापी, स्थाणु, अचल, अव्यक्त और अचिन्त्य,[5] अप्रेमय[6] तथा कूटस्थ[7] कहा गया है और निर्गुण-निराकार परमात्मा को अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वव्यापी अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव कहा गया है।[8] जीवात्मा को भी ‘परमात्मा’ कहा गया है[9] और निर्गुण-निराकार परमात्मा को भी ‘परमात्मा’ कहा गया है।[10] जीवात्मा को भी ‘निर्गुण’ कहा गया है[11] और निर्गुण-निराकार परमात्मा को भी ‘निर्गुण’ कहा गया है।[12] सगुण-साकार के साथ जीवात्मा की एकता-जीवात्मा को भी ‘महेश्वर’ कहा गया है[13] और सगुण-साकार परमात्मा को भी ‘महेश्वर कहा गया है।'[14] तेरहवें अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान् ने ‘तू संपूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मेरे को ही जान’- ऐसा कहकर जीवात्मा की अपने (सगुण साकार के) साथ एकता बतायी है। सब स्वरूपों के साथ जीवात्मा की एकता बताने का तात्पर्य यह है कि इस जीवात्मा की परमात्मा के साथ एकता स्वतः है परंतु शरीर के साथ एकता मानने से परमात्मा के साथ एकता का अनुभव नहीं होता। अतः साधक को चाहिए कि वह शरीर के साथ अपनी एकता न माने, प्रत्युत परमात्मा के साथ दृढ़ता से एकता मानकर साधन-परायण हो जाय, तो फिर उस एकता का अनुभव हो जाएगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (15।8)
- ↑ (18।61)
- ↑ (2।17)
- ↑ (13।15)
- ↑ (2।24-25)
- ↑ (2।18)
- ↑ (15।16)
- ↑ (12।3)
- ↑ (13।22)
- ↑ (6।7)
- ↑ (13।31)
- ↑ (13।14)
- ↑ (13।22)
- ↑ (5।29, 9।11, 10।3)
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