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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
49. गीता में क्रिया, कर्म और भाव
हम जो कुछ देखते-सुनते हैं, उसमें अगर हमारी निर्लिप्तता है तो वह देखना सुनना हमारे लिए क्रिया हो जाती है, जो कि बंधनकारक नहीं होती। परंतु अगर हम रागपूर्वक देखते-सुनते हैं तो वह देखना-सुनना रूप क्रिया हमारे लिए कर्म बन जाती है। यही बात सभी इंद्रियों की क्रियाओं के विषय में समझनी चाहिए। कर्मयोगी साधक केवल लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है, अपने लिए कुछ नहीं करता अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, जो कि बंधन से मुक्त करने वाली होती है।[1] ज्ञानयोगी साधक अपने आपको अकर्ता अनुभव करता है अतः उसके द्वारा क्रियामात्र होती है।[2] भक्तियोगी साधक केवल भगवान् की प्रसन्नता के लिए ही कर्म करता है।[3] अतः उन क्रियाओं का भगवान् के साथ संबंध होने से वे क्रियाएँ कर्म नहीं बनतीं। इतना ही नहीं, उसकी क्रियाओं में दिव्यता आ जाती है। वे क्रियाएँ दुनिया का हित करने वाली हो जाती हैं। ध्यानयोगी, लययोगी, हठयोगी आदि कोई भी साधक अगर प्रकृति की क्रियाओं के साथ अपना संबंध नहीं जोड़ता तो उसके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि कर्मयोगी में निष्कामभाव होने से, ज्ञानयोगी में प्रकृति और उसके कार्य की क्रियाओं से अपनी पृथक्ता का भाव होने से एवं भक्तियोगी में भगवान् की प्रसन्नता का भाव होने से उनके द्वारा क्रियामात्र होती है, कर्म नहीं होता। ज्ञानी महापुरुष भी जो कुछ करता है, उसको अपने शुद्ध (राग-द्वेषरहित) स्वभाव के अनुसार ही करता है अतः उसके द्वारा कर्म नहीं बनता, केवल चेष्टामात्र (क्रियामात्र) होती है।[4] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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