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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
44. गीता में तीनों योगों की समानता
कर्मयोग में ‘कर्म’ का अभाव और ‘अकर्म’ का भाव है। जैसे, प्रत्येक कर्म का आरंभ और समाप्ति होती है; परंतु कर्म के आरंभ होने से पहले भी अकर्म था और कर्म के समाप्त होने के बाद भी अकर्म रहेगा। यह सिद्धांत है कि जो वस्तु आदि और अंत में रहती है, वह मध्य में भी रहती है। इसलिए कर्म करते समय भी अकर्म ज्यों का त्यों ही है। ज्ञानयोग में ‘सर्वभूत’ का अभाव और ‘आत्मा’ का भाव है। जैसे, सब शरीरों का जन्म और मरण होता है परंतु शरीरों के जन्म से पहले भी आत्मा थी और शरीरों के मरने के बाद भी आत्मा रहेगी। इसलिए शरीरों के रहते हुए भी आत्मा ज्यों की त्यों ही है। भक्तियोग में ‘सर्व’ का अभाव और ‘भगवान्’ का भाव है। जैसे, संसार उत्पन्न और नष्ट होता है; परंतु संसार के उत्पन्न होने से पहले भी भगवान् थे और संसार के नष्ट होने के बाद भी भगवान् रहेंगे। इसलिए संसार के रहते हुए भगवान् ज्यों के त्यों ही हैं। अकर्म (निर्लिप्तता), आत्मा और भगवान्- ये तीनों स्वतः सिद्ध हैं। जो वस्तु स्वतः सिद्ध होती है, वह सदा के लिए होती है, सभी के लिए होती है और सब जगह होती है। परंतु पूर्वोक्त कर्म, सर्वभूत और सर्व (वस्तु, व्यक्ति, योग्यता, परिस्थिति, अवस्था आदि)- ये तीनों स्वतः सिद्ध नहीं है; अतः ये सदा के लिए, सभी के लिए और सब जगह नहीं है। जो वस्तु कभी है और कभी नहीं है, किसी को मिलती है और किसी को नहीं मिलती, कहीं है और कहीं नहीं है, उसकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थ से होता है। इसलिए कर्म, सर्वभूत और सर्व की प्राप्ति क्रिया और पदार्थ के आश्रित है अर्थात् इनकी प्राप्ति अभ्याससाध्य है। परंतु अकर्म, आत्मा और भगवान् की प्राप्ति अभ्याससाध्य नहीं है, प्रत्युत निष्काम भाव, विवेक और विश्वास के द्वारा साध्य है। यदि इनकी प्राप्ति अभ्याससाध्य होती है तो ये सदा के लिए, सभी को और सब जगह प्राप्त नहीं होते। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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