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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
41. गीता में दैवी और आसुरी सपत्ति
दैवी और आसुरी-इन दोनों शब्दों में 'देव' नाम देवताओं का नहीं है, प्रत्युत परमात्मा का है; 'असुर' नाम राक्षसों का नहीं है, प्रत्युत प्राणों में रमण करने वालों का है। गीता में 'देवदेव',[1] 'देवम्',[2] 'देवदेवस्य',[3] 'देव'[4] आदि पदों में परमात्मा के लिये 'देव' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'आसूरं भावम्',[5] आदि पदों में प्राणों में आसक्ति रखने वाले के लिए 'असुर' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'देव' अर्थात परमात्मा के जितने गुण है, वे सर्भ 'दैवी गुण' कहलाते हैं। ये दैवी गुण परमात्मा की प्राप्ति कराने वाली पूँजी होने से 'दैवी सम्पत्ति' कहलाते हैं- 'दैवी सम्पद्विमोक्षाय'[6] साधकलोग इसी दैवी सम्पत्ति का आश्रय लेकर भगवान् का भजन करते हैं।[7] 'असु' नाम प्राणों का है। उन प्राणों में ही जो रमण करने वाले हैं, प्राणों का भरण-पोषण-रक्षण करना चाहते हैं, वे असुर कहलाते हैं और उन असुरों का जो स्वभाव है, उनके जो गुण हैं, वे 'आसुरी गुण' कहलाते हैं। ये आसुरी गुण बार-बार जन्म-मरण देने वाली चौरासी लाख योनियों में और नरकों में ले जाने वाली पूँजी होने से 'आसूरी सम्पत्ति' कहलाते हैं- ‘निबंधायासुरी मता’[8] मूढ़लोग इसी आसुरी संपत्ति का आश्रय लेते हैं।[9] |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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