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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
38. गीता में विभिन्न मान्यताएँ
भगवान् की मान्यता
योगभ्रष्ट के विषय में अर्जुन का संदेह दूर करने के बाद भगवान् कहते हैं कि जो मेरे में तल्लीन हुए अंतःकरण से श्रद्धा प्रेमपूर्वक मेरा भजन करता है, वह मेरा भक्त ज्ञानयोगी, कर्मयोगी आदि संपूर्ण योगियों से श्रेष्ठ है- ऐसा मेरा मत है।[1] अर्थार्थीं, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी) इन चारों भक्तों को सुकृती और उदार बताकर भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी (प्रेमी) भक्त तो मेरी आत्मा (स्वरूप) ही है- ऐसा मेरा मत है क्योंकि उसकी कोई अन्य कामना नहीं है, वह केवल मेरे में लगा हुआ है।[2] बारहवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने पूछा कि भक्तियोग और ज्ञानयोग के उपासकों में कौन श्रेष्ठ है? तो भगवान् कहते हैं कि मेरे में मन लगाने वाले, परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करने वाले भक्त सर्वश्रेष्ठ हैं- ऐसा मेरा मत है।[3] सांसारिक जितने भी ज्ञान हैं, उन सबमें क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, देह-देही, शरीर-शरीरी, अनित्य-नित्य, असत्-सत् का ज्ञान (विवेक) श्रेष्ठ है। यह ज्ञान संपूर्ण साधनों का आधार है, मूल है क्योंकि साधक कोई भी साधन करेगा तो उसमें यह विवेक रहेगा ही। अतः भगवान् कहते हैं कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ही मेरे मत में यथार्थ ज्ञान है।[4] अठारहवें अध्याय के आरंभ में भगवान् ने सांख्ययोग और कर्मयोग के विषय में अन्य दार्शनिकों के चार मत बताये। उन चारों मतों की तुलना में भगवान् कहते हैं कि कर्म और उसके फल में आसक्ति का त्याग करके कर्तव्य कर्म करना चाहिए- यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।[5] गीता के अध्ययन, पठन-पाठन की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि जो इस गीता-ग्रंथ का केवल अध्ययन भी करेगा, पाठ भी करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाऊँगा- ऐसी मेरी मान्यता है।[6] इस तरह भक्ति के विषय में चार, ध्यानयोग के विषय में दो, ज्ञानयोग के विषय में एक, कर्मयोग के विषय में एक और गीताध्ययन के विषय में एक- इन संपूर्ण मान्यताओं का तात्पर्य है कि भगवान् ने भक्ति को ही ज्यादा मान्यता दी है, आदर दिया है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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