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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
36. गीता और संसार में रहने की विद्या
अपने घर में रहने वाले चूहे, मच्छर, खटमल आदि हमे तंग करें तो उनसे अपने को बचाने का अधिकार हमें है, पर उनका नाश करने का अधिकार हमे नहीं है। इसी तरह साँप, बिच्छू आदि जहरीले जीव आ जायँ तो उनको पकड़कर किसी सुरक्षित जगह ले जाकर छोड़ने में कोई दोष नहीं है, पर उनको मारने का अधिकार हमें नहीं है। मकान आदि वस्तुओं का सदुपयोग करते हुए उनकी वृद्धि करते करना चाहिये; किन्तु भाव ऐसा रखना चाहिये कि हम तो यहाँ आते और फिर चले जायँगे, पर यहाँ हमारे पुत्र-पौत्र आदि रहेंगे उनकी सुविधा के लिये मकान आदि की ठीक तरह से रक्षा करनी है। यद्यपि पुत्र-पौत्र आदि भी यहाँ आये हैं और चले जायँगे, तो भी हमें उनको आराम देना है, उनकी सेवा करनी है, हित करना है। इसी तरह अपने मुहल्ले, गाँव, प्रांत, देश आदि की भी सेवा करनी है। स्वयं परमात्मा का अंश होने से नित्य है, पर वह अनित्य शरीर आदि को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानकर उनके अधीन हो जाता है[1] तो उसको संसार में रहना आया नहीं। अगर उसको संसार में रहना आता तो वह शरीर आदि में लिप्त नहीं होता, पराधीन नहीं होता। संसार में हजारों लाखों मकान हैं, पर वे सब के सब अगर गिर भी जायँ तो उसका हमें दुख नहीं होता; अतः उनसे हम मुक्त रहते हैं। परंतु जिस मकान को हम अपना मान लेते हैं, उसमें हम फँस जाते हैं। अतः मकान आदि को केवल व्यवहार के लिए ही अपना मानना चाहिए। जैसे कोई आफिस में जाता है तो वह कुर्सी, टेबल आदि को उपयोग में लाने के लिए ही अपना मानता है, भीतर से उनको अपना नहीं मानता। ऐसे ही संसार की वस्तुओं को उपयोग में लाने के लिए ही अपना माने, भीतर से उनको कभी अपना और अपने लिए न माने। इसी तरह माता-पिता आदि की सेवा करने के लिए ही उनको अपना माने। केवल सेवा के लिए ही अपना नहीं मानता। ऐसे ही संसार की वस्तुओं के उपयोग में लाने के लिए ही अपना माने, भीतर से उनको कभी अपना और अपने लिए न माने। इसी तरह माता-पिता आदि की सेवा करने के लिए ही उनको अपना माने। केवल सेवा के लिए ही अपना मानने से स्वयं ही लिप्तता मिटती है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (15।7)
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