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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
29. गीता में प्राणिमात्र के प्रति हित का भाव
साधक जो कुछ भी साधन-भजन करता है, उससे भी लोगों का स्वाभाविक हित होता है। अगर उसमें ‘मेरा कल्याण हो जाय’- ऐसा व्यक्तिगत हित का भाव रहता है, तो भी उसके द्वारा लोगों का हित होता है। भगवत्प्राप्त महापुरु, में अपना कोई व्यक्तिगत हित का भाव नहीं रहता; अतः उसके द्वारा जो कुछ होता है, वह स्वतः लोगों के हित के लिए ही होता है। उसके दर्शन से, शरीर का स्पर्श करने वाली वायु से, संग से, वचनों से दूसरे लोगों पर असर पड़ता है, जिससे उन लोगों में साधन-भजन करने की रुचि जाग्रत होती है और वे भी भगवान् की तरफ चल पड़ते हैं। जैसे बीड़ी सिगरेट पीने वालों के द्वारा स्वतः ही बीड़ी सिगरेट का प्रचार होता है, ऐसे ही साधक के द्वारा भी स्वतः साधन भजन का प्रचार होता है। ऐसे सच्चे हृदय से साधन करने वाले साधकों का समुदाय जहाँ रहता है, उस स्थान में विलक्षणता आ जाती है। जैसे भोगियों के भोग और संग्रह का लोगों पर स्वतः असर पड़ता है, ऐसे ही साधकों के त्याग और साधन-भजन का लोगों पर स्वतः असर पड़ता है। उनके साधन भजन का असर केवल मनुष्यों पर ही नहीं, प्रत्युत पशु पक्षी आदि जीवों पर दीवार आदि जड़ चीजों पर भी पड़ता है। जो सिद्ध महापुरुष केवल अपने में ही रहते हैं, लोक-व्यवहार में आते ही नहीं, उनके द्वारा भी अदृश्यरूप से स्वतः चिन्मय तत्त्व का, जड़ता के त्याग का प्रचार होता है और साधकों को जड़ता का त्याग करके चिन्मय तत्त्व में स्थित होने में अदृश्य रूप से सहायता मिलती है। जैसे बर्फ से स्वतः ठण्डक निकलती है, सूर्य से स्वतः प्रकाश निकलता है, ऐसे ही उन महापुरुषों से लोगों का स्वतः हित होता है, लोगों को शांति मिलती है। अतः संसार में जितनी शांति है, सुख है, आनंद है, वह सब सिद्ध महापुरुषों की कृपा से ही है। दूसरों के हित में प्रीति रखना और अपना कल्याण करना- ये दोनों अलग-अलग दीखते हुए भी वास्तव में एक ही हैं। कारण कि जिनकी प्राणियों का हित करने की भावना है, वे जड़ता का त्याग करके कल्याण को प्राप्त होते हैं और जो अपना कल्याण करने में लगे हैं, उनके द्वारा जड़ता का त्याग स्वतः होता है, जिससे उनके द्वारा स्वतः प्राणियों का हित होता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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