विषय सूची
गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
24. गीता में सृष्टि-रचना
4. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ संयोग- जीवों का अपने अपने शरीरों के साथ जो तादात्म्य है, उसको ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का संयोग’ कहते हैं। इसी को ‘प्रकृति पुरुष का संयोग’, ‘जड-चेतन का संयोग’ और ‘अपरा-परा प्रकृति का संयोग’ भी कहते हैं। जीवों का स्थूल सूक्ष्म और कारण-शरीरों के साथ जो ‘राग’ है, वह संयोग है। इस संयोग के कारण ही जीवों की उत्पत्ति होती है, जन्म-मरण होता है।[1] तात्पर्य है कि इस संयोग- (राग) से ही जीवों का महासर्ग में कारण शरीर के साथ, सर्ग में सूक्ष्म शरीर के साथ और सृष्टिचक्र में माता-पिता के रजवीर्य के साथ संबंध हो जाता है। जीवों का शरीर के साथ जो तादात्म्य है, राग है, संबंध है, उसका वर्णन गीता के सातवें अध्याय के छठे श्लोक में और तेरहवें अध्याय के इक्कीसवें तथा छब्बीसवें श्लोक में किया गया है। उपर्युक्त महासर्ग, सर्ग, सृष्टिचक्र और क्षेत्र क्षेत्रज्ञ संयोग- इन चारों का तात्पर्य यह है कि चाहे महासर्ग हो, चाहे सर्ग को चाहे सृष्टिचक्र हो और चाहे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ संयोग हो, इन सबमें परमात्मा का जीवों के साथ और जीवों का परमात्मा के साथ अटूट संबंध रहता है। केवल शरीर की परवशता के कारण जीव बार-बार जन्मता-मरता रहता है। यह परवशता भी इसकी खुद की बनायी हुई है। अगर इस परवशता को छोड़कर जीव परमात्मा के सम्मुक हो जाय तो वह हरेक परिस्थिति में परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (13-21)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज