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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
23. गीता में विश्वरूप-दर्शन
संजय ने भी उस विश्वरूप के प्रभाव से प्रभावित होकर कहा है कि ‘हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण के उस अत्यंत अद्भुत विश्वरूप को याद करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ और मेरे को महान् आश्चर्य भी हो रहा है।’[1] भगवान् का विश्वरूप ज्ञानदृष्टि का विषय नहीं है, प्रत्युत दिव्यदृष्टि का विषय है। तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष भी साधक को ज्ञानदृष्टि देकर इस संसार को ‘वासुदेवः सर्वम्’ के रूप से दिखा सकते हैं बोध करा सकते हैं, पर भगवान् के विश्वरूप को नहीं दिखा सकते अर्थात हरेक संत महात्मा उस विश्वरूप को देखने – दिखाने में समर्थ नहीं है। उस विश्वरूप को तो भगवान् और भगवान् से अधिकार प्राप्त किए हुए भगवत्कृपा पात्र कारक पुरुष ही दिव्यदृष्टि देकर दिखा सकते हैं। भगवान् ने अर्जुन को ज्ञानदृष्टि देकर उस संसार को ही विश्वरूप से दिखा दिया हो- यह बात नहीं है; किंतु भगवान् ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि देकर नेत्रों से साक्षात दिखाया है। अर्जुन ने विश्वरूप दिखाने के लिए भगवान् से प्रार्थना की तो भगवान् ने अपना विश्वरूप देखने के लिए अर्जुन को आज्ञा दी।[2] परंतु जब अर्जुन को कुछ भी नहीं दीखा, तब भगवान् ने कहा कि ‘भैया! तुम अपने इन नेत्रों (चर्मचक्षुओं) से मेरे विश्वरूप को नही देख सकते। अतः मैं तुम्हें दिव्यदृष्टि देता हूँ, जिससे तुम मेरे उस रूप को देख लो’।[3] दिव्य दृष्टि प्राप्त होते ही अर्जुन को विश्वरूप के दर्शन होने लगे। अर्जुन ने कहा भी कि ‘हे भगवान्! मैं आपके शरीर में संपूर्ण देवताओं आदि को देख रहा हूँ-‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे....’[4][5] संजय ने भी कहा कि अर्जुन ने देवों के देव भगवान् के शरीर में विश्वरूप को देखा- ‘अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा’[6] भगवान् ने भी अपने शरीर में विश्वरूप को देखने की आज्ञा दी थी।[7] तात्पर्य यह है कि ऐसा ऐश्वर्यमय दिव्य विश्वरूप न तो किसी साधन के बल से देखा जा सकता है, न मनुष्य अपनी सामर्थ्य से देख सकता है और न तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष ही ज्ञानदृष्टि देकर उसे दिखा सकते हैं। उसके दर्शन में तो केवल भगवत्कृपा ही कारण है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (18।77)
- ↑ (11।5-7)
- ↑ (11।8)
- ↑ (11।15)
- ↑ अर्जुन ने और जगह भी विश्वरूप को नेत्रों से देखने की बात ही कही है; जैसे- ‘पश्यामि’ (11।16-17, 19); ‘दृष्टवा’ (11।20, 23-24, 45); ‘दृष्ट्वैव’ (11।25); ‘संदृश्यन्ते’ (11।27) आदि।
- ↑ (11।13)
- ↑ (11।7)
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