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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
13. गीता में धर्म
शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मण के स्वधर्म है।[1] इनके अतिरिक्त पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना आदि भी ब्राह्मण के स्वधर्म हैं। शौर्य, तेज आदि क्षत्रिय के स्वधर्म हैं।[2] इनके अतिरिक्त परिस्थिति के अनुसार प्राप्त कर्तव्य का ठीक पालन करना भी क्षत्रिय का 'स्वधर्म' है। खेती करना, गायों का पालन करना और व्यापार करना वैश्य के 'स्वधर्म' हैं।[3] इनके अतिरिक्त परिस्थिति के अनुसार कोई आवश्यक कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारु रूप से करना भी वैश्य का 'स्वधर्म' है। सबकी सेना करना शूद्रक 'स्वधर्म है।[4] इसके अतिरिक्त परिस्थिति के अनुसार प्राप्त और भी कर्मो को सांगोपांग करना शूद्र का 'स्वधर्म' है। भगवान ने कृपा के परवश होकर अर्जुन के मध्यम से सभी मनुष्यो को एक विशेष बात बतायी है कि तुम (उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरण में आ जाओ तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम चिंता मत करो।[5] तात्पर्य यह है कि अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये उपर्युक्त सभी धर्मो का पालन करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्र को दृष्टि में रखकर इनका पालन करना ही चाहिये[6] परंतु इनका आश्रय नहीं लेना चाहिये। आश्रय केवल भगवान का ही लेना चाहिये। कारण कि वास्तव में ये स्वयं के धर्म नहीं हैं प्रत्युत शरीर को लेकर होने से परधर्म ही हैं। भगवान ने 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य'[7] पदों से समता को, 'धर्मस्यास्य'[8] पद से ज्ञान विज्ञान को और 'धर्म्यामृतम्'[9] पद से सिद्ध भक्तों के लक्षणों को भी 'धर्म कहा है। इनको धर्म कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा का स्वरूप होने से समता सभी प्राणियों का स्वधर्म (स्वयं का धर्म) है। परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला होने से ज्ञान-विज्ञान भी साधक का स्वधर्म है और स्वत:सिद्ध होने से सिद्ध भक्तों के लक्षण भी सबके स्वधर्म हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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