श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना

महाभारत सभा पर्व के ‘राजसूय पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 33 के अनुसार श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का न्यायपूर्ण शासन करना

वैशम्पायनजी कहते हैं- कुरुनन्दन! इस प्रकार सारी पृथ्वी को जीतकर अपने धर्म के अनुसार बर्ताव करते हुए पाँचों भाई पाण्डव इस भूमण्डल का शासन करने लगे। भीमसेन आदि चारों भाईयों के साथ राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण प्रजापर अनुग्रह करते हुए सब वर्ण के लोगों को संतुष्ट रखते थे। युधिष्ठिर किसी का भी विशेष न करके सबके हित साधन में लगे रहते थे। ‘सबको तृप्त एवं प्रसन्न किया जाय, खजाना खोलकर सबको खुले हाथ दान दिया जाय, किसी पर बल प्रयोग न किया जाय, धर्म! तुम धन्य हो।’ इत्यादि बातों के सिवा युधिष्ठिर के मुख से और कुछ नहीं सुनाई पड़ता था। उनके ऐस बर्ताव के कारण सारा जगत उनके प्रति वैसा ही अनुराग रखने लगा, जैसे पुत्र पिता के प्रति अनुरक्त होता है। राजा युधिष्ठिर से द्वेष रखने वाला कोई नही था, इसीलिये वे ‘अज्ञातशत्रु’ कहलते थे। धर्मराज युधिष्ठिर प्रजा की रक्षा, सत्य का पालन और शत्रुओं का संहार करते थे। उनके इन कार्यों से निश्चिन्त एवं उतसाहित होकर प्रजावर्ग के सब लोग अपने अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों के पालन में संलग्न रहते थे। न्यायपूर्वक कर लेने और धर्मपूर्वक शासन करने से उनके राज्य में मेघ इच्छानुसार वर्षा करते थे। इस प्रकार युधिष्ठिर का सम्पूर्ण जनपद धन धान्य से सम्पन्न हो गया था। गोरक्षा, खेती और व्यापार आदि सभी कार्य अच्छे ढंग से होने लगे। विशेषत: राजा की सुव्यवस्था से ही यह सब कुछ उत्तमरूप से सम्पन्न होता था। राजन्! औरों की तो बात कही क्या है, चोरों, ठगों, राजा अथवा राजा के विश्वासपात्र व्यक्तियों के मुख से भी वहाँ कोई झूठी बात नहीं सुनी जाती थी। केवल प्रजा के साथ ही नहीं, आपस में भी वे लोग झूठ कपट का बर्ताव नहीं करते थे। धर्मपरायण युधिष्ठिर के शासनकाल में अनावृष्टि, अतिवृष्टि, रोग व्याधि तथा आग लगने आदि उपद्रवों का नाम भी नहीं था। राजा लोग उनके यहाँ स्वाभाविक भेंट देने अथवा उनका कोई प्रिय कार्य करने के लिए ही आते थे, युद्ध आदि दूसरे किसी काम से नहीं। धर्मपूर्वक प्राप्त होने वाले धन की आय से उनका महान धन भंडार इतना बढ़ गया था कि सैकड़ों वर्षों तक खुले हाथ लुटाने पर भी उसे समाप्त नहीं किया जा सकता था।[1]

युधिष्ठिर द्वारा यज्ञ का निश्चय करना

कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने अन्न वस्त्र के भंडार तथा खजाने का परिणाम जानकर यज्ञ करने का ही निश्चिय किया। उनके जितने हितैषी सुह्रद थे, वे सभी अलग-अलग और एक साथ यही कहने लगे- ‘प्रभो! यह आपके यज्ञ करने का उपयुक्त समय आया है, अत: अब उसका आरम्भ कीजिये’।[1]

श्रीकृष्ण का इन्द्रप्रस्थ में आदर सत्कार

वे सुह्रद इस तरह की बातें कर ही रहे थे कि उसी समय भगवार श्रीहरि आ पहुँचे। वे पुराण पुरुष, नारायण ऋषि, वेदात्मा एवं विज्ञानीजनों के लिए भी अगम्य परमेश्वर हैं। वे ही स्थावर जंगम प्राणियों के उत्तम उत्पत्ति स्थान और लय के अधिष्ठान हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों के नियन्ता हैं। वे ही केशी दैत्य को मारने वाले केशव हैं।[1] वे सम्पूर्ण वृष्णिवंशियों के परकोटे की भाँति संरक्षक, आपत्ति में अभय देने वाले तथा उनके शत्रुओं का संहार करने वाले हैं। पुरुषसिंह माधव अपने पिता वसुदेवजी को द्वारका की सेना के आधिपत्य पर स्थापित करके धर्मराज के लिये नाना प्रकार के धन रत्नों की भेंट से विशाल सेना के साथ वहाँ आये थे। अक्षय महासागर हो। उसे लेकर रथों की आवाज से समूची दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुए वे उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ में प्रविष्ठ हुए। पाण्डवों का धन भण्डार तो यों ही भरा पूरा था, भगवान ने (उन्हें अक्षय धन की भेंट देकर) उसे और भी पूर्ण कर दिया। उनका शुभागमन पाण्डवों के शत्रुओं का शोक बढ़ाने वाला था। बिना सूर्य का अन्धकारपूर्ण जगत सूर्योंदय होने से जिस प्रकार प्रकाश से भर जाता है, बिना वायु के स्थान में वायु के चलने से जैसे नूतन प्राण शक्ति का संचार हो उठता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के पदार्पण करने पर समस्त इन्द्रप्रस्थ में हर्षोल्लास छा गया। नरश्रेष्ठ जनमेजय! राजा युधिष्ठिर बड़ेे प्रसन्न होकर उनसे मिले। उनका विधिपूर्वक स्वागत सत्कार करके कुशल मंगल पूछा और जब वे सूखपूर्वक बैठ गये, तब घौम्य, द्वैपायन आदि ऋत्विवों तथा भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव- चारों भाइयों के साथ निकट जाकर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा।[2]-

युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से यज्ञ के लिए आज्ञा लेना

युधिष्ठिर ने कहा- श्रीकृष्ण! आपकी दया से आपकी सेवा के लिये सारी पृथ्वी इस समय मेरे अधीन हो गयी है। वार्ष्णेय! मुझे धन भी बहुत प्राप्त हो गया है। देवकीनन्दन माध्व वह सारा धन मैं विधिपूर्वक श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा हव्यवाहन अग्नि के उपयोग में लाना चाहता हूँ। महाबाहु दाशार्ह! अब मैं आप तथा अपने छोटे भाइयों के साथ यज्ञ करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे आज्ञा दें। विशाल भुजाओं वाले गोविन्द! आप स्वयं यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कीजिये। दाशार्ह! आपके यज्ञ करने पर मैं पापरहित हो जाऊँगा। प्रभो! अथवा मुझे अपने इन छोटे भाइयों के साथ दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दीजिये। श्रीकृष्ण! आपकी अनुज्ञा मिलने पर ही मैं उस उत्तम यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करूँगा।[2]

श्री कृष्ण का युधिष्ठिर को दीक्षा लेने की आज्ञा देना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब भगवान श्रीकृष्ण ने राजसूययज्ञ के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन करके उनसे इस प्रकार कहा- ‘राजसिंह! आप सम्राट होने योग्य हैं, अत: आप ही इस महान् यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कीजिये। आपके दीक्षा लेेने पर हम सब लोग कृतकृत्य हो जायँगे। आप अपने इस अभीष्ठ यज्ञ को प्रारम्भ कीजिये। मैं आप का कल्याण करने के लिये सदा उद्यत हूँ। मुझे आवश्यक कार्य में लगाइये, मैं आपकी सब आज्ञाओं का पालन करूँगा’। युधिष्ठिर बोले- श्रीकृष्ण मेरा संकल्प सफल हो गया, मेरी सिद्धि सुनिश्चित है, क्योंकि ह्रषिकेश! आप मेरी इच्छा के अनुसार स्वयं ही यहाँ उपस्थित हो गये हैं।[2]

युधिष्ठिर द्वारा यज्ञ करने लिए सभी आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध करना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण से आज्ञा लेकर भाइयों सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने राजसूययज्ञ करने के लिये साधन जुटाना आरम्भ किया। उस समय शत्रुओं का संहार करने वाले पाण्डुकुमार ने योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव तथा सम्पूर्ण मन्त्रियों को आज्ञा दी। ‘इस यज्ञ के लिये ब्राह्मणों के बताये अनुसार यज्ञ के अंगभूत सामान, आवश्यक उपकरण, सब प्रकार की मांगलिक वस्तुएँ तथा धौम्यजी की तबायी हुई यज्ञोपयोगी सामग्री इन सभी वस्तुआं को क्रमश: जैसे मिलें, वैसे शीघ्र ही अपने सेवक जाकर ले आवें।[2] ‘इन्द्रसेन, विशोक और अर्जुन का सारथि पूरु, ये मेरा प्रिय करने की इच्छा से अन्न आदि के संग्रह के काम पर जुट जायँ। ‘कुरुश्रेष्ठ! जिनको खाने की प्राय: सभी इच्छा करते हैं, वे रस और गन्ध से युक्त भाँति-भाँति के मिष्टान आदि तैयार कराये जायँ, जो ब्राह्मणों को उनकी इच्छा के अनुसार प्रीति प्रदान करने वाले हों'। धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात समाप्त होते ही योद्धाओं में श्रेष्ठ सहदेव ने उनसे निवेदन किया, ‘यह सब व्यवस्था हो चुकी है’। राजन्! तदनन्तर द्वैपायन व्यासजी बहुत से ऋत्विजों को ले आये। वे महाभाग ब्राह्मण मानो साक्षात् मूर्तिमान बेद ही थे। स्वयं सत्यवजीनन्दन व्यास ने उस यज्ञ में ब्रह्मा का काम सँभाला। धनंजय गोत्रीय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ सुसामा सामगान करने वाले हुए। और ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य उस यज्ञ के श्रेष्ठतम अध्वर्यु थे। वसुपुत्र पैल धौमय मुनि के साथ होता बने थे। भरतश्रेष्ठ! इनके पुत्र और शिष्यवर्ग के लोग, जो सब के सब वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे, ‘होत्रग’ (सप्त होता) हुए। उन सबने पण्याहवाचन कराकर उस विधि का ऊहन (अर्थात् राजसूयेन यक्ष्ये, स्वाराज्यमवाघ्नवानि- मैं स्वाराज्य प्राप्त करूँ, इस उद्देश्य से राजसूययज्ञ करूँगा, इत्यादि रूप से संकल्प) कराकर शास्त्रोक्त विधि से उस महान् यज्ञस्थान का पूजन कराया। उस स्थान पर राजा की आज्ञा से शिल्पियों ने देव मन्दिरों के समान विशाल एवं सुगन्धित भवन बनाये।[3]

युधिष्ठिर का सहदेव को राजाओं को निमन्त्रण भेजने के लिए आज्ञा देना

तदनन्तर राजशिरोमणि नरश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरंत ही मंत्री सहदेव को आज्ञा दी, ‘सब राजाओं तथा ब्राह्मणों को आमन्त्रित करने के लिये तुरंत ही शीघ्रागामी दूस भेजो।’ राजा की यह बात सुनकर सहदेव ने दूतों को भेजा और कहा- ‘तुमलोग सभी राज्यों में घूम-घूमकर वहाँ के राजाओं, ब्राह्मणों, वैश्यों तथा सब माननीय शूद्रों को निमन्त्रित कर दो और बुला ले आओ। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर के आदेश से सहदेव की आज्ञा पाकर सब शीघ्रगामी दूत गये और उन्होंने ब्राह्मण आदि सब वर्णों के लोगों को निमन्त्रित किया तथा बहुतों को वे अपने साथ ही शीघ्र बुला लाये। वे अपने से सम्बन्ध रखने वाले अन्य व्यक्तियों को भी साथ लाना न भूले। भारत! तदनन्तर वहाँ आये हुए सब ब्राह्मणों ने ठीक समय पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को राजसूययज्ञ की दीक्षा दी। यज्ञ की दीक्षा लेकर धर्मात्मा धर्मराज युधिष्ठिर सहस्रों ब्राह्मणों से घिरे हुए यज्ञ मण्डप में गये। उस समय उनके सगे भाई, जाति बन्धु, सुहृय, सहायक अनेक देशों से आये हुए क्षत्रिय नरेश तथा मन्त्रिगण भी थे। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर मूर्तिमान धर्म ही जान पड़ते थे। तत्पश्चात वहाँ भिन्न-भिन्न देशों से ब्राह्मण लोग आये, जो सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात तथा वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान थे। धर्मराज की आज्ञा से हजारों शिल्पयों ने आत्मीयजनों के साथ आये हुए उन ब्राह्मणों के ठहरने के लिये पृथक-पृथक घर बनाये थे, जो बहुत से अन्न और वस्त्रों से परिपूर्ण थे और जिनमें सभी ऋतुओं में सुखपूर्वक रहने की सुविधाएँ थी। राजन! उन गृहों में वे ब्राह्मण लोग राजा से सत्कार पाकर निवास करने लगे। वहाँ वे नाना प्रकार की कथाएँ कहते और नट नर्तकों के खेल देखते थे। वहाँ भोजन करते और बोलते हुए आनन्दमग्‍न महात्मा ब्राह्मणों का निरन्तर महान कौलाहल सुनायी पड़ता था। ‘इनको दीजिये, इन्हें परोसिये, भोजन कीजिये, भोजन कीजिये’ इसी प्रकार के शब्द वहाँ प्रतिदिन कानों में पड़ते थे। भारत! धर्मराज युधिष्ठिर ने एख लाख गौएँ, अतनी ही शय्याएँ, एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा उतनी ही अविवाहित युवतियाँ पृथक-पृथक ब्राह्मणों दान की। इस प्रकार स्वर्ग में इन्द्र की भाँति भूमण्डल में अद्वितीय वीर महात्मा पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर का यह यज्ञ प्रारम्भ हुआ। तदनन्तर पुरुषोत्तम राजा युधिष्ठिर ने भीष्म, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, विदुर, कृपाचार्य तथा दुर्योधन आदि सब भाइयों एवं अपने में अनुराग रखने वाले अन्य जो लोग वहाँ रहते थे, उन सबको बुलाने के लिये पाण्डुपुत्र नकुल को हस्तिनापुर भेजा।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-11
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 33 श्लोक 12-29
  3. 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 33 श्लोक 30-48

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