नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना

महाभारत सभा पर्व के ‘लोकपाल सभाख्यान पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 5 के अनुसार नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

नारद जी का युधिष्ठिर की सभा में आगमन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! एक दिन उस सभा में महात्मा पाण्डव अन्यान्य महापुरुषों तथा गन्धर्वों आदि के साथ बैठे हुए थे। उसी समय वेद और उपनिषदों के ज्ञाता, ऋषि, देवताओं द्वारा पूजित, इतिहास-पुराण के मर्मज्ञ, पूर्व कल्प की बातों के विशेषज्ञ, न्याय के विद्वान, धर्म के तत्त्व को जानने वाले, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्यौतिष- इन छहों अंगों के पण्डितों में शिरोमणि, ऐक्य[2], संयोग[3] नानात्व और समवाय[4] के ज्ञान में विशारद, प्रगल्भ वक्ता, मेधावी, स्मरणशक्ति सम्पन्न, नीतिज्ञ, त्रिकालदर्शी, अपर ब्रह्म और परब्रह्म को विभाग पूर्वक जानने वाले, प्रमाणों द्वारा एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचे हुए, पंचावयवयुक्त[5] वाक्य के गुण-दोष को जानने वाले, बृहस्पति-जैसे वक्ता के साथ भी उत्तर-प्रत्युत्तर करने में समर्थ, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों के सम्बन्ध में यथार्थ निश्‍चय रखने वाले तथा इन सम्पूर्ण चौदहों भुवनों को ऊपर, नीचे, और तिरछे सब ओर से प्रत्यक्ष देखने वाले, महाबुद्धिमान, सांख्य और योग के विभाग पूर्वक ज्ञाता, देवताओं और असुरों में भी निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न करने के इच्छुक, संधि और विग्रह के तत्त्व को समझने वाले, अपने और शत्रु पक्ष के बलाबल का अनुमान से निश्चय करके शत्रु पक्ष के मन्त्रियों आदि को फोड़ने के लिये धन आदि बाँटने के उपयुक्त अवसर का ज्ञान रखने वाले, संधि (सुलह), विग्रह (कलह), यान (चढ़ाई करना), आसन (अपने स्थान ही चुप्पी मारकर बैठे रहना), द्वैधीभाव (शत्रुओं में फूट डालना) और समाश्रय (किसी बलवान राजा का आश्रय ग्रहण करना)- राजनीति के इन छहों अंगों के उपयोग के जानकार, समस्त शास्त्रों के निपुण विद्वान, युद्ध और संगीत की कला में कुशल, सर्वत्र क्रोध रहित, इन उपर्युक्त गुणों के सिवा और भी असंख्य सद्गुणों से सम्पन्न, मननशील, परम कान्तिमान महातेजस्वी देवर्षि नारद लोक-लोकान्तरों में घूमते-फिरते पारिजात, बुद्धिमान पर्वत तथा सौम्य, सुमुख आदि अन्य अनेक ऋषियों के साथ सभा में स्थित पाण्डवों से प्रेमपूर्वक मिलने के लिये मन के समान वेग से वहाँ आये और उन ब्रह्मर्षि ने जयसूचक आशीर्वादों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर का अत्यन्त सम्मान किया।[1] सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता पाण्डव श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद को आया देख भाइयों सहित सहसा उठकर उन्हें प्रेम,विनय और नम्रता पूर्वक उस समय नमस्कार किया और उन्हें उनके योग्य आसन देकर धर्मज्ञ नरेश ने गौ, मधु पर्क तथा अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करते हुए रत्नों से उनका विधिपूर्वक पूजन किया तथा उनकी सब इच्छाओं की पूर्ति करके उन्हें संतुष्ट किया। राजा युधिष्ठिर से यथोचित पूजा पाकर नारद जी भी बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकार सम्पूर्ण पाण्डवों से पूजित होकर उन वेदवेत्ता महर्षि ने युधिष्ठिर से धर्म, काम और अर्थ तीनों के उपदेश पूर्वक ये बातें पूछीं।

नारद जी बोले - राजन! क्या तुम्हारा धन तुम्हारे (यज्ञ, दान तथा कुटुम्बरक्षा आदि आवश्यक कार्यों के) निर्वाह के लिये पूरा पड़ जाता है? क्या धर्म में तुम्हारा मन प्रसन्नतापूर्वक लगता है? क्या तुम्हें इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्‍त होते हैं? (भगवचिंन्तन में लगे हुए) तुम्हारे मन को (किन्हीं दूसरी वृत्तियों-द्वारा) आघात या विक्षेप तो नहीं पहुँचता है? नरदेव! क्या तुम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र- इन तीनों वर्णों की प्रजाओं के प्रति अपने पिता-पितामहों द्वारा व्यवहार में लायी हुई धर्मार्थयुक्त उत्तम एवं उदार वृत्ति का व्यवहार करते हो? तुम धन के लोभ में पड़कर धर्म को, केवल धर्म ही संलग्न रहकर धन को अथवा आसक्ति ही जिसका बल है, उस कामभोग के सेवन द्वारा धर्म और अर्थ दोनों को ही हानि तो नहीं पहुँचाते? विजयी वीरों में श्रेष्ठ एवं वरदायक नरेश! तुम त्रिवर्गसेवन के उपयुक्त समय का ज्ञान रखते हो; अतः काल का विभाग करके नियत और उचित समय पर सदा धर्म, अर्थ एवं काम का सेवन करते हो न?[6] निष्पाप युधिष्ठिर! क्या तुम राजोचित छः[7] गुणों के द्वारा सात[8] उपायों की, अपने और शत्रु के बलाबली तथा देशपाल, दुर्गपाल आदि चौदह[9] व्यक्तियों की भलीभाँति परख करते रहते हो? विजेताओं में श्रेष्ठ भरतवंशी युधिष्ठिर! क्या तुम अपनी और शत्रु की शक्ति को अच्छी तरह समझ कर यदि शत्रु प्रबल हुआ तो उसके साथ संधि बनाये रखकर अपने धन और कोष की वृद्धि के लिये आठ[10] कर्मों का सेवन करते हो?[11] भरतश्रेष्ठ! तुम्हारी मन्त्री आदि सात[12] प्रकृतियाँ कहीं शत्रुओं में मिल तो नहीं गयी हैं? तुम्हारे राज्य धनी लोग बुरे व्यसनों से बचे रहकर सर्वथा तुम से प्रेम करते हैं न? जिन पर तुम्हें संदेह, नहीं होता, ऐसे शत्रु के गुप्तचर कृत्रिम मित्र बनकर तुम्हारे मन्त्रियों द्वारा तुम्हारी गुप्त मन्त्रणा को जानकर उसे प्रकाशित तो नहीं कर देते? क्या तुम मित्र, शत्रु और उदासीन लोगों के सम्बन्ध में यह ज्ञान रखते हो कि वे कब क्या करना चाहते हैं? उपयुक्त समय का विचार करके ही संधि और विग्रह की नीति का सेवन करते हो न? क्या तुम्हें इस बात का अनुमान है कि उदासीन एवं मध्यम व्यक्तियों के प्रति कैसा बर्ताव करना चाहिये? वीर! तुमने अपने स्वयं के समान विश्वसनीय वृद्ध, शुद्ध हृदय वाले, किसी बात को अच्छी तरह समझाने में समर्थ, उत्तम कुल में उत्पन्न और अपने प्रति अत्यन्त अनुराग रखने वाले पुरुषों को ही मन्त्री बना रखा है न? क्योंकि भारत! राजा की विजय-प्रप्ति का मूल कारण अच्छी मन्त्रणा (सलाह) और उसकी सुरक्षा ही है, (जो सुयोग्य मन्त्री के अधीन है)। तात! मन्त्र को गुप्त रखने वाले उन शास्त्रज्ञ सचिवों द्वारा तुम्हारा राष्ट्र सुरक्षित तो है न? शत्रुओं द्वारा उसका नाश तो नहीं हो रहा है? तुम असमय में ही निद्रा के वशीभूत तो नहीं होते? समय पर जग जाते हो न? अर्थ शास्त्र के जानकार तो तुम हो ही। रात्रि के पिछले भाग में जगकर अपने अर्थ (आवश्यक कर्तव्य एवं हित) के विषय में विचार तो करते हो न?[13] (कोई भी गुप्त मन्त्रणा दो से चार कानों तक ही गुप्त रहती है, छः कानों में जाते ही वह फूट जाती है, अतः मैं पूछता हूँ,) तुम किसी गूढ़ विषय पर अकेले ही तो विचार नहीं करते अथवा बहुत लोगों के साथ बैठकर तो मन्त्रणा नहीं करते? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम्हारी निश्चित की हुई गुप्त मन्त्रणा फूटकर शत्रु के राज्य तक फैल जाती हो? धन की वृद्धि के ऐसे उपायों का निश्चय करके, जिन में मूलधन तो कम लगाना पड़ता हो, किंतु वृद्धि अधिक होती हो, उनका शीघ्रतापूर्वक आरम्भ कर देते हो न? वैसे कार्यों में अथवा वैसा कार्य करने वाले लोगों के मार्ग में तुम विघ्न तो नहीं डालते? तुम्हारे राज्य के किसान- मजदूर आदि श्रमजीवी मनुष्य तुमसे अज्ञात तो नहीं हैं? उनके कार्य और गतिविधि पर तुम्हारी तो दृष्टि है न? वे तुम्हारे अविश्वास के पात्र तो नहीं हैं अथवा तुम उन्हें बार-बार छोड़ते और पुनः काम पर लेते तो नहीं रहते? क्योंकि महान अभ्युदय या उन्‍नति में उन सब का स्नेहपूर्ण सहयोग ही कारण है।[14][15]

नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना

कृषि आदि के कार्य विश्वसनीय, लोभ रहित और बड़े-बूढ़ों के समय से चले आने वाले कार्यकर्ताओं द्वारा ही कराते हो न? राजन! वीर शिरोमणे! क्या तुम्हारे कार्यों के सिद्ध हो जाने पर या सिद्धि के निकट पहुँच जाने पर ही लोग जान पाते हैं? सिद्ध होने से पहले ही तुम्हारे किन्हीं कार्यों को लोग जान तो नहीं लेते। तुम्हारे यहाँ जो शिक्षा देने का काम करते हैं, वे धर्म एवं सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान होकर ही राजकुमारों तथा मुख्य-मुख्य योद्धाओं को सब प्रकार की आवश्यक शिक्षाएँ देते हैं न? तुम हजारों मूर्खों के बदले एक पण्डित को ही तो खरीदते हो न? अर्थात आदरपूर्वक स्वीकार करते हो न? क्योंकि विद्वान पुरुष ही अर्थ संकट के समय महान कल्याण कर सकता है। क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी और धनुर्धर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं? यदि एक भी मन्त्री मेधावी, शौर्य सम्पत्र, संयमी और चतुर हो तो राजा अथवा राजकुमार को विपुल सम्पत्ति की प्राप्ति करा देता है। क्या तुम शत्रु पक्ष के अठारह[16]और अपने पक्ष के पंद्रह[17] तीर्थों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा देख-भाल या जाँच-पड़ताल करते रहते हो? शत्रुसूदन! तुम शत्रुओं से अज्ञात, सतत सावधान और नित्य प्रयत्नशील रहकर अपने सम्पूर्ण शत्रुओं की गतिविधि पर दृष्टि रखते हो न? क्या तुम्हारे पुरोहित विनयशील, कुलीन, बहुज्ञ, विद्वान, दोष दृष्टि से रहित तथा शास्त्र चर्चा में कुशल हैं? क्या तुम उनका पूर्ण सत्कार करते हो? तुमने अग्निहोत्र के लिये विधिज्ञ, बुद्धिमान और सरल स्वभाव के ब्राह्मण को नियुक्त किया है न? वह सदा किये हुए और किये जाने वाले हवन को तुम्हें ठीक समय पर सूचित कर देता है न? क्या तुम्हारे यहाँ हस्त-पादादि अंगों की परीक्षा में निपुण, ग्रहों की वक्र तथा अतिचार आदि गतियों एवं उनके शुभाशुभ परिणाम आदि को बताने वाला तथा दिव्य, भौम एवं शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के उत्पातों को पहले से ही जान लेने में कुशल ज्योतिषी है? तुमने प्रधान-प्रधान व्यक्तियों को उनके योग्य महान कार्यों में मध्यम श्रेणी के कार्यकर्ताओं को मध्यम कार्यों में तथा निम्न श्रेणी के सेवकों को उनकी योग्यता के अनुसार छोटे कामों में ही लगा रखा है न? क्या तुम निश्छल, बाप-दादों के क्रम से चले आये हुए और पवित्र आचार-विचार वाले श्रेष्ठ मन्त्रियों को सदा श्रेष्ठ कर्मों में लगाये रखते हो? भरत श्रेष्ठ! कठोर दण्ड के द्वारा तुम प्रजाजनों को अत्यन्त उद्वेग में तो नहीं डाल देते? मन्त्री लोग तुम्हारे राज्य का न्याय पूर्वक पालन करते हैं न? जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का और स्त्रियाँ कामचारी पुरुष का तिरस्कार कर देती हैं, उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती?[18] क्या तुम्हारा सेनापति हर्ष और उत्साह से सम्पन्‍न, शूर-वीर, बुद्धिमान, धैर्यवान, पवित्र, कुलीन, स्वामिभक्त तथा अपने कार्य में कुशल है? तुम्हारी सेना के मुख्य-मुख्य दलपति सब प्रकार के युद्धों में चतुर, धृष्ट[19], निष्कपट और पराक्रमी हैं न? तुम उनका यथोचित सत्कार एवं सम्मान करते हो न? अपनी सेना के लिये यथोचित भोजन और वेतन ठीक समय पर दे देते हो न? जो उन्हें दिया जाना चाहिये, उसमें कमी या विलम्ब तो नहीं कर देते? भोजन और वेतन में अधिक विलम्ब होने पर भृत्यगण अपने स्‍वामी पर कुपित हो जाते हैं और उनका वह कोप महान अनर्थ का कारण बताया गया है। क्या उत्तम कुल में उत्पन्‍न मन्त्री आदि सभी प्रधान अधिक सभी प्रधान अधिकारी तुमसे प्रेम रखते हैं? क्या वे युद्ध में तुम्हारे हित के लिये अपने प्राणों तक का त्याग करने को सदा तैयार रहते हैं? तुम्हारे कर्मचारियों में कोई ऐसा तो नहीं है, जो अपनी इच्छा के अनुसार चलने वाला और तुम्हारे शासन का उल्लंघन करने वाला हो तथा युद्ध के सारे साधनों एवं कार्यों को अकेला ही अपनी रुचि के अनुसार चला रहा हो? कोई[20] पुरुष अपने पुरुषार्थ से जब किसी कार्य को अच्छे ढंग से सम्पन्‍न करता है, तब वह आप से अधिक सम्मान अथवा अधिक भत्ता और वेतन पाता है न? क्या तुम विद्या से विनयशील एवं ज्ञाननिपुण मनुष्यों को उनके गुणों के अनुसार यथायोग्य धन आदि देकर उनका सम्मान करते हो? भरतश्रेष्ठ! जो लोग तुम्हारे हित के लिये सहर्ष मृत्यु का वरण कर लेते हैं अथवा भारी संकट में पड़ जाते हैं, उनके बाल-बच्चों की रक्षा तुम करते हो न? कुन्तीनन्दन! जो भय से अथवा अपनी धन-सम्पत्ति का नाश होने से तुम्हारी शरण में आया हो या युद्ध में तुमसे परास्त हो गया हो, ऐसे शत्रु का तुम पुत्र के समान पालन करते हो या नहीं? पृथ्वीपते! क्या समस्त भूमण्डल की प्रजा तुम्हें ही समदर्शी एवं माता-पिता के समान विश्वसनीय मानती है? भरत कुलभूषण! क्या तुम अपने शत्रु को[21] दुर्व्यसनों में फँसा हुआ सुनकर उसके त्रिविध बल[22] पर विचार करके यदि वह दुर्बल हो तो उसके ऊपर बड़े वेग से आक्रमण कर देते हो?[23] शत्रुदमन! क्या तुम पार्ष्णिग्राह आदि बारह[24] व्यक्तियों के मण्डल[25] को जानकर अपने कर्तव्य[26] का निश्चय करके और पराजय मूलक व्यसनों[27] का अपने पक्ष में अभाव तथा शत्रु पक्ष में आधिक्य देखकर उचित अवसर आने पर दैव का भरोसा करके अपने सैनिकों को अग्रिम वेतन देकर शत्रु पर चढ़ाई कर देते हो? परंतप! शत्रु के राज्य में जो प्रधान-प्रधान योद्धा हैं, उन्हें छिपे-छिपे यथायोग्य रत्न आदि भेंट करते रहते हो या नहीं? कुन्तीनन्दन! क्या तुम पहले अपनी इन्द्रियों और मन को जीत कर ही प्रमाद में पड़े हुए अजितेन्द्रिय शत्रुओं को जीतने की इच्छा करते हो? शत्रुओें पर तुम्हारे आक्रमण करने से पहले अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए तुम्हारे साम, दान, भेद और दण्ड- ये चार गुण विधिपूर्वक उन शत्रुओं तक पहुँच जाते हैं न?[28] महाराज! तुम अपने राज्य की नींव को दृढ़ करके शत्रुओं पर धावा करते हो न? उन शत्रुओं को जितने के लिये पूरा पराक्रम प्रकट करते हो न? और उन्हें जीत कर उनकी पूर्ण रूप से रक्षा तो करते रहते हो न? क्या धनरक्षक, द्रव्यसंग्राहक, चिकित्सक, गुप्तचर, पाचक, सेवक, लेखक और प्रहरी- इन आठ अंगों और हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल- इन चार[29] प्रकार के बलों से युक्त तुम्हारी सेना सुयोग्य सेनापतियों द्वारा अच्छी तरह संचालित होकर शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होती है? शत्रुओं को संतप्त करने वाले महाराज! तुम शत्रुओं के राज्य में अनाज काटने और दुर्भिक्ष के समय की उपेक्षा न करके रणभूमि में शत्रुओं को मारते हो न? क्या अपने और शत्रु के राष्ट्रों में बहुत-से अधिकारी स्थान-स्थान में घूम-फिरकर प्रजा को वश में करने एवं कर लेने आदि प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं और परस्पर मिलकर राष्ट्र एवं अपने पक्ष के लोगों की रक्षा में लगे रहते हैं?[30] महाराज! तुम्हारे खाद्य पदार्थ, शरीर में धारण करने के वस्त्र आदि तथा सूँघने के उपयोग में आने वाले सुगन्धित द्रव्यों की रक्षा विश्वस्त पुरुष ही करते हैं न? तुम्हारे कल्याण के लिये सदा प्रयत्नशील रहने वाले, स्वामिभक्त मनुष्यों द्वारा ही तुम्हारे धन-भण्डार, अन्न-भण्डार, वाहन, प्रधान द्वार, अस्त्र-शस्त्र तथा आय के साधनों की रक्षा एवं देख-भाल की जाती है न? प्रजापालक नरेश! क्या तुम रसोइये आदि भीतरी सेवकों तथा सेनापति आदि बाह्य सेवकों द्वारा भी पहले अपनी ही रक्षा करते हो, फिर आत्मीय जनों द्वारा एवं परस्पर एक-दूसरे से उन सब की रक्षा पर भी ध्यान देते हो? तुम्हारे सेवक पूर्वाह्णकाल में[31] तुमसे मद्यपान, द्यूत, क्रीड़ा और युवती स्त्री आदि दुर्व्‍यसनों में तुम्हारा समय और धन को व्यर्थ नष्ट करने के लिये प्रस्ताव तो नहीं करते? क्या तुम्हारी आय के एक चौथाई या आधे अथवा तीन चौथाई भाग से तुम्हारा सारा खर्च चल जाता है? तुम अपने आश्रित कुटुम्ब के लोगों, गुरुजनों, बड़े-बूढ़ों, व्यापारियों, शिल्पियों तथा दीन-दुखियों को धन-धान्य देकर उन पर सदा अनुग्रह करते रहते हो न? तुम्हारी आमदनी और खर्च को लिखने और जोड़ने के काम में लगाये हुए सभी लेखक और गणक प्रतिदिन पूर्वाह्णकाल में तुम्हारे सामने अपना हिसाब पेश करते हैं न? किन्हीं कार्यों में नियुक्त किये हुए प्रौढ़, हितैषी एवं प्रिय कर्मचारियों को पहले उनके किसी अपराध को जाँच किये बिना तुम काम से अलग तो नहीं कर देते हो? भारत! तुम उत्तम, मध्यम और अधम श्रेणी के मनुष्यों को पहचानकर उन्हें उनके अनुरूप कार्यों में ही लगाते हो न? राजन! तुमने ऐसे लोगों को तो अपने कामों पर नहीं लगा रखा है? जो लोभी, चोर, शत्रु अथवा व्यावहारिक अनूभव से सर्वथा शून्य हों? चोरों, लोभियों, राजकुमारों या राजकुल की स्त्रियों द्वारा अथवा स्वयं तुमसे ही तुम्हारे राष्ट्र को पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है? क्या तुम्हारे राज्य के किसान संतुष्ट हैं? क्या तुम्हारे राज्य के सभी भागों में जल से भरे हुए बड़े-बड़े तालाब बनवाये गये हैं? केवल वर्षा के पानी के भरोसे ही तो खेती नहीं होती है? तुम्हारे राज्य के किसान का अन्न या बीज तो नष्ट नहीं होता? क्या तुम प्रत्येक किसान पर अनुग्रह करके उसे एक रूपया सैकड़े ब्याज पर ऋण देते हो? तात! तुम्हारे राष्ट्र में अच्छे पुरुषों द्वारा वार्ता- कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार का काम अच्छी तरह किया जाता है न? क्योंकि उपर्युक्त वार्तावृत्ति पर अवलम्बित रहने वाले लोग ही सुखपूर्वक उन्‍नति करते हैं। राजन! क्या तुम्हारे जनपद के प्रत्येक गाँव में शूरवीर, बुद्धिमान और कार्य कुशल पाँच-पाँच पंच मिल कर सुचारू रूप से जनहित के कार्य करते हुए सबका कल्याण करते हैं? क्या नगरों की रक्षा के लिये गाँवों को भी नगर के ही समान बुहत-से शूरवीरों द्वारा सुरक्षित कर दिया गया है? सीमावर्ती गाँवों को भी अन्‍य गाँवों की भाँति सभी सुविधाएँ दी गई हैं? तथा क्या वे सभी प्रान्त, ग्राम और नगर तुम्हें[32] धन समर्पित करते हैं[33][34] क्या तुम्हारे राज्य में कुछ रक्षक पुरुष सेना साथ लेकर चोर-डाकुओं का दमन करते हुए सुगम एवं दुर्गम नगरों में विचरते रहते हैं? तुम स्त्रियों को सान्त्वना देकर संतुष्ट रखते हो न? क्या वे तुम्हारे यहाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं? तुम उन पर पूरा विश्वास तो नहीं करते? और विश्चास करके उन्हें कोई गुप्त बात तो नहीं बता देते? राजन! तुम कोई अमंगल सूचक समाचार सुनकर और उस के विषय में बार-बार विचार करके भी प्रिय भोग-विलासों का आनन्द लेते हुए अन्तःपुर में ही सोते तो नहीं रह जाते? प्रजानाथ! क्या तुम रात्रि के[35] जो प्रथम दो[36] याम हैं, उन्हीं में सोकर अन्तिम पहर में उठकर बैठ जाते और धर्म एवं अर्थ का चिन्तन करते हो? पण्डु नन्दन! तुम प्रतिदिन समय पर उठकर स्नान आदि के पश्चात् वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो देश-काल के ज्ञाता मन्त्रियों के साथ बैठकर[37] मनुष्यों की इच्छा पूर्ण करते हो न? शत्रुदमन! क्या लाल वस्त्र धारण करके अलंकारों से अलंकृत हुए योद्धा अपने हाथों में तलवार लेकर तुम्हारी रक्षा के लिये सब ओर से सेवा में उपस्थित रहते हैं? महाराज! क्या तुम दण्डनीय अपराधियों के प्रति यमराज और पूजनीय पुरुषों के प्रति धर्मराज का-सा बर्ताव करते हो? प्रिय एवं अप्रिय व्‍यक्तियों की भलीभाँति परीक्षा करके ही व्यवहार करते हो न? कुन्तीकुमार! क्या तुम औषधि सेवन या पथ्य-भोजन आदि नियमों के पालन द्वारा अपने शारीरिक कष्ट को तथा वृद्ध पुरुषों की सेवा रूप सत्संग द्वारा मानसिक संताप को सदा दूर करते रहते हो? तुम्हारे वैद्य अष्टांग चिकित्सा में[38] कुशल, हितैषी, प्रेमी एवं तुम्हारे शरीर को स्वस्थ रखने के प्रयत्न में सदा संलग्न रहने वाले हैं न? नरेश्वर! कहीं ऐसा तो नहीं होता कि तुम अपने यहाँ आये हुए अर्थी[39] और प्रत्‍यर्थी[40] की ओर लोभ, मोह अथवा अभिमानवश किसी प्रकार आँख उठाकर देखते तक नहीं? कहीं अपने आश्रित जनों की जीविकावृत्ति को तुम लोभ, मोह, आत्मविश्वास अथवा आसक्ति से बंद तो नहीं कर देते? तुम्हारे नगर तथा राष्ट्र के निवासी मनुष्य संगठित होकर तुम्हारे साथ विरोध तो नहीं करते? शत्रुओं ने उन्हें किसी तरह घूस देकर खरीद तो नहीं लिया है? कोई दुर्बल शत्रु जो तुम्हारे द्वारा पहले बलपूर्वक पीड़ित किया गया[41], अब मन्त्रणा शक्ति से अथवा मन्त्रणा और सेना दोनों ही शक्तियों से किसी तरह बलवान होकर सिर तो नहीं उठा रहा है? क्या सभी मुख्य-मुख्य भूपाल तुम से प्रेम रखते हैं? क्या वे तुम्हारे द्वारा सम्मान पाकर तुम्हारे लिये अपने प्राणों की बलि दे सकते हैं? क्या तुम्हारे मन में सभी विद्याओं के प्रति गुण के अनुसार आदर का भाव है? क्या तुम ब्राह्मणों तथा साधु-संतों की सेवा-पूजा करते हो? जो तुम्हारे लिये शुभ एवं कल्याणकारिणी है। इन ब्राह्मणों को तुम सदा दक्षिणा तो देते रहते हो न? क्योंकि वह स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली है।[42] तीनों वेद ही जिस के मूल हैं और पूर्व पुरुषों ने जिसका आचरण किया है, उस धर्म का अनुष्ठान करने के लिये तुम अपने पूर्वजों ही भाँति प्रयत्नशील तो रहते हो? धर्मानुकूल कर्म में ही तुम्हारी प्रवृत्ति तो रहती है? क्या तुम्हारे महल में तुम्हारी आँखों के सामने गुणवान ब्राह्मण स्वादिष्ट और गुणकारक अन्न भोजन करते हैं? और भोजन के पश्चात् उन्हें दक्षिणा दी जाती है? अपने मन को वश में करके एकाग्रचित्त हो वाजपेय और पुण्डरीक आदि सभी यज्ञ-यागों का तुम पूर्ण रूप से अनुष्ठान करने का प्रयत्न तो करते हो न? जाति-भाई, गुरुजन, वृद्ध पुरुष, देवता, तपस्वी, चैत्यवृक्ष[43] आदि तथा कल्याणकारी ब्राह्मणों को नमस्कार तो करते हो न? निष्पाप नरेश! तुम किसी के मन में शोक या क्रोध तो नहीं पैदा करते? तुम्हारे पास कोई मनुष्य हाथ में मंगल-सामग्री लेकर सदा उपस्थित रहता है न? पापरहित युधिष्ठिर! अब तक जैसा बतलाया गया है, उसके अनुसार ही तुम्हारी बुद्धि और वृत्ति[44] हैं न? ऐसी धर्मानुकूल बुद्धि और वृत्ति आयु तथा यश को बढ़ाने-वाली एवं धर्म, अर्थ तथा काम को पूर्ण करने वाली है। जो ऐसी बुद्धि के अनुसार बर्ताव करता है, उसका राष्ट्र कभी संकट में नहीं पड़ता। वह राजा सारी पृथ्वी को जीतकर बड़े सुख से दिनों दिन उन्नति करता है। हीं ऐसा तो नहीं होता कि शास्त्रकुशल विद्वानों का संग न करने वाले तुम्हारे मूर्ख मन्त्रियों ने किसी विशुद्ध हृदय-वाले श्रेष्ठ एवं पवित्र पुरुष पर चोरी का अपराध लगाकर उसका सारा धन हड़प लिया हो? और फिर अधिक धन के लोभ से वे उसे प्राणदण्ड देते हों? नरश्रेष्ठ! कोई ऐसा दुष्ट चोर जो चोरी करते समय गृहरक्षकों, द्वारा देख लिया गया और चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया हो, धन के लोभ से छोड़ तो नहीं दिया जाता? भारत! तुम्हारे मन्त्री चुगली करने वाले लोगों के बहकावे में आकर विवेक शून्य हो किसी धनी के या दरिद्र के थोड़े समय में ही अचानक पैदा हुए अधिक धन को मिथ्यादृष्टि से तो नहीं देखते? या उनके बढ़े हुए धन को चोरी आदि से लाया हुआ तो नहीं मान लेते? युधिष्ठिर! तुम नास्तिकता, झूठ, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता, ज्ञानियों का संग न करना, आलस्य, पाँचों इन्द्रियों-के विषयों में आसक्ति, प्रजाजनों पर अकेले ही विचार करना, अर्थशास्त्र को न जानने वाले मूर्खों के साथ विचार-विमर्श, निश्चित कार्यों के आरम्भ करने में विलम्ब या टालमटोल, गुप्त मन्त्रणा को सुरक्षित न रखना, मांगलिक उत्सव आदि न करना तथा एक साथ ही सभी शत्रुओं पर चढ़ाई कर देना- इन राज सम्बन्धी चौदह दोषों का त्याग तो करते हो न? क्योंकि जिनके राज्य की जड़ जम गयी है, ऐसे राजा भी इन दोषों के कारण नष्ट हो जाते हैं। क्या तुम्हारे वेद सफल हैं? क्या तुम्हारा धन सफल है? क्या तुम्हारी स्त्री सफल है? और क्या तुम्हारा शास्त्र-ज्ञान सफल है?

युधिष्ठिर ने पूछा - देवर्षें! वेद कैसे सफल होते हैं, धन की सफलता कैसे होती हे? स्त्री की सफलता कैसे मानी गयी है तथा शास्त्र ज्ञान कैसे सफल होता है?[45] नारद जी ने कहा- राजन! वेदों की सफलता अग्नि होत्र से होती है, दान और भोग से ही धन सफल होता है, स्त्री का फल है- रति और पुत्र की प्राप्ति तथा शास्त्र ज्ञान का फल है, शील और सदाचार। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! यह कहकर महातपस्वी नारद मुनि ने धर्मात्मा युधिष्ठिर से पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। नारद जी ने पूछा - राजन! कर वसूलने का काम करने वाले तुम्हारे कर्मचारी लोग दूर से लाभ उठाने के लिये आये हुए व्‍यापारियों से ठीक-ठीक कर वसूल करते हैं न?[46] महाराज! वे व्यापारी लोग आपके नगर और राष्ट्र में सम्मानित हो लिये बिक्री के लिये उपयोगी सामान लाते हैं न! उन्हें तुम्हारे कर्मचारी छल से ठगते तो नहीं? तात! तुम सदा धर्म और अर्थ के ज्ञाता एवं अर्थशास्त्र के पूरे पण्डित बड़े-बूढ़े लोगों की धर्म और अर्थ से युक्त बातें सुनते रहते हो न? क्या तुम्हारे यहाँ खेती से उत्पन्न होने वाले अन्न तथा फल-फूल एवं गौओं से प्राप्त होने वाले दूध, घी आदि में से मधु[47] और घृत आदि धर्म के लिये ब्राह्मणों को जाते हैं? नरेश्वर! क्या तुम सदा नियम से सभी शिल्पियों को व्यवस्थापूर्वक एक साथ इतनी वस्तु-निर्माण की साम्रगी दे देते हो, जो कम-से-कम चौमासे भर चल सके। महाराज! क्या तुम्हें किसी के किये हुए उपकार का पता चलता है? क्या तुम उस उपकारी की प्रशंसा करते हो और साधु पुरुषों से भरी हुई सभा के बीच उस उपकारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसका आदर-सत्कार करते हो? भरतश्रेष्ठ! क्या तुम संक्षेप से सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले सभी सूत्र ग्रन्थ- हस्तिसूत्र, अश्वसूत्र एवं रथसूत्र आदि संग्रह[48] करते रहते हो? भरत कुलभूषण! क्या तुम्हारे घर पर धनुर्वेद-सूत्र, यन्त्र-सूत्र[49] और नागरिक[50] सूत्र का अच्छी तरह अभ्यास किया जाता है? निष्पाप नरेश! तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र[51], वेदोक्त दण्ड-विधान तथा शत्रुओं का नाश करने वाले सब प्रकार के विषप्रयोग ज्ञात हैं न? क्या तुम अग्नि, सर्प, रोग तथा राक्षसों के भय से अपने सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा करते हो? धर्मज्ञ! क्या तुम अंधों, गूँगों, पंगुओं अंगहीनों और बन्धु-बान्धवों से रहित अनाथों तथा संन्यासियों का भी पिता की भाँति पालन करते हो? महाराज! क्या तुमने निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, कठोरता और दीर्घसूत्रता- इन छः दोषों को पीछे कर दिया[52] है?

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! कुरुश्रेष्ठ महात्मा राजा युधिष्ठिर ने ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ नारद जी का यह वचन सुनकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम एवं अभिवादन किया और अत्यन्त संतुष्ट हो देवस्वरूप नारद जी से कहा। युधिष्ठिर बोले- देवर्षे! आपने जैसा उपदेश दिया है, वैसा ही करूँगा। आपके इस प्रवचन से मेरी प्रज्ञा और भी बढ़ गयी है। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर ने वैसा ही आचरण किया और इसी से समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का राज्य पा लिया। नारद जी ने कहा - जो राजा इस प्रकार चारों वर्णों[53] की रक्षा में संलग्न रहता है, वह इस लोक में अत्यन्त सुख पूर्वक विहार करके अन्त में देवराज इन्द्र के लोक में जाता है।[54]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-12
  2. परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले वेद के वचनों की एकवाक्यता।
  3. एक में मिले हुए वचनों को प्रयोग के अनुसार अलग-अलग करना।
  4. यज्ञ के अनेक कर्मों के एक साथ उपस्थित होने पर अधिकार के अनुसार यजमान के साथ कम्र का जो सम्बन्ध होता है, उसका नाम समवाय है।
  5. दूसरे को किसी वस्तु का बोध कराने के लिये प्रवृत्त हुआ पुरुष जिस अनुमान वाक्य का प्रयोग करता है, उस में पाँच अवयव होते हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन। जैसे किसी ने कहा-‘इस पर्वत पर आग है, यह वाक्य प्रतिज्ञा है। ‘क्योंकि वहाँ धूम है’ यह हेतु है। जैसे रसोई घर में धूआँ दीखने पर वहाँ आग देखी जाती है’ दृष्टान्‍त ही उदाहरण है। ‘चूँकि इस पर्वत पर धूआँ दिखायी देता है’ हेतु की इस उपलब्धि का नाम उपनय है। ‘इसलिये वहाँ आग है’ यह निश्‍चय ही निगमन है। इस वाक्य में अनुकूल तर्क का होना गुण है और प्रतिकूल तर्क का होना दोष है, जैसे ‘यदि वहाँ आग न होती, तो धूआँ भी नहीं उठता’ यह अनुकूल तर्क है। जैसे कोई तालाब से भाप उठती देखकर यह कहे कि इस तालाब में आग है, तो उस का वह अनुमान आश्रया सिद्ध रूप हेत्वाभास से युक्त होगा।
  6. दक्षस्मृति में त्रिवर्ग सेवन का काल-विभाग इस प्रकार बताया गया है- पूर्वाह्वे त्वाचरेद् धर्म मध्याह्नेऽर्थमुपार्जयेत्। सायाह्ने चाचरेत् काममित्येषा वैदिकी श्रुतिः।। पूर्वाह्नकाल में धर्म का आचरण करे, मध्याह्न के समय धनोपार्जन का काम देखे और सायाह्न (रात्रि) के समय काम का सेवन करे। यह वैदिक श्रुति का आदेश है। (नीलकण्ठी से उद्धृत)
  7. राजाओं में छः गुण होने चाहिये - व्याख्यान शक्ति, प्रगल्भता, तर्ककुशलता, भूतकाल की स्मृति, भविष्य पर दृष्टि तथा नीति निपुणता।
  8. सात उपाय ये हैं- मन्त्र, औषध, इन्द्रजाल, साम, दान, दण्ड और भेद।
  9. परीक्षा के योग्य चौदह स्थान या व्यक्ति नीतिशास्त्र में इस प्रकार बताये गये हैं-

    देशो दुर्ग रथो हस्तिवाजियोधाधिकारिणः।
    अन्तःपुरान्नगणनाशास्त्रलेख्यधनासवः। ।

    देश, दुर्ग, रथ, हाथी, घोड़े, शूर सैनिक, अधिकारी, अन्तःपुर, अन्न, गणना, शास्त्र, लेख्य, धन और असु (बल), इनके जो चौदह अधिकारी हैं, राजाओं को उनकी परीक्षा करते रहना चाहिये।
  10. राजा के कोष और धन की वृद्धि के लिये आठ कर्म ये हैं-

    कृषिर्वणिक्‍पथो दुर्ग सेतुः कुंजरबन्धनम्।
    खन्याकरकरादानं शून्यानां च निवेशनम्।।
    अष्ट संधानकर्माणि प्रयुक्तानि मनीषिभिः।।

    खेती का विस्तार, व्यापार की रक्षा, दुर्ग का रचना एवं रक्षा, पुलों का निर्माण और उनकी रक्षा, हाथी बाँधना, सोने-हीरे आदि की खानों पर अधिकार करना, कर की वसूली और उजाड़ प्रान्तों में लोगों को बसाना- मनीषी पुरुषों द्वारा ये आठ संधान कर्म बताये गये हैं।
  11. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 13-22
  12. स्वामी, मन्त्री, मित्र, कोष, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना एवं पुरवासी- ये राज्य के सात अंग ही सात प्रकृतियाँ हैं। अथवा दुर्गाध्यक्ष, बलाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्योतिषी- ये भी सात प्रकृतियाँ कही गयी हैं।
  13. स्मृति में कहा है कि - ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय चिन्त-येदात्मनो हितम्।’ अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में उठकर अपने हित का चिन्तन करे। (नीलकण्ठी टीका से उद्धृत)
  14. क्योंकि चिरकाल से अनुगृहीत होने पर ही वे ज्ञात, विश्वासपात्र और स्वामी के प्रति अनुरक्त होते हैं
  15. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 23-32
  16. शत्रु पक्ष के मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अन्तर्वेशिक (अन्तःपुर का अध्यक्ष), कारागाराध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, यथा योग्य कार्यों में धन को व्यय करने वाला सचिव, प्रदेष्टा (पहरेदारों को काम बताने वाला), नगराध्यक्ष (कोतवाल), कार्य निर्माणकर्ता (शिल्पियों का परिचालक), धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्र सीमापाल तथा वनरक्षक - ये अठारह तीर्थ हैं, जिन पर राजा को दृष्टि रखनी चाहिये।
  17. उपर्युक्त टिप्पणी में अठारह तीर्थों में से आदि के तीन को छोड़कर शेष पंद्रह तीर्थ अपने पक्ष के भी सदा परीक्षणीय हैं।
  18. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 33-46
  19. निर्भय
  20. तुम्हारे यहाँ काम करने वाला
  21. स्त्री-द्यूत आदि
  22. मन्त्र, कोष एवं भृत्य-बल अथवा प्रभुशक्ति, मन्त्र शक्ति एवं उत्साह शक्ति
  23. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 47-58
  24. विजय के इच्छुक राजा के आगे खड़े होने वाले उस के शत्रु के शत्रु 2, उन शत्रुओं के मित्र 2, उन मित्रों के मित्र 2 - ये छः व्यक्ति युद्ध में आगे खड़े होते हैं। विजिगीषु के पीछे पार्ष्णिग्रह (पृष्ठरक्षक) और आक्रन्द (उत्साह दिलाने वाला)- ये दो व्यक्ति खड़े होते हैं। इन दोनों की सहायता करने वाले एक-एक व्यक्ति इनके पीछे खड़े होते हैं, जिनकी आसार संज्ञा है। ये क्रमशः पार्ष्णिग्राहासार और आक्रन्दासार कहे जाते हैं। इस प्रकार आगे के छः और पीछे के चार मिलकर कहे जाते हैं। विजिगीषु के पार्श्व भाग में मध्यम और उसके भी पार्श्व भाग में उदासीन होता है। इन दोनों को जोड़ लेने से इन सबकी संख्या बारह होती है। इन्हीं को द्वादश राजतण्डल अथवा ‘पार्ष्णिमूल’ कहते हैं। अपने और शत्रु पक्ष के इन व्यक्तियों को जानना चाहिये।
  25. समुदाय
  26. नीति शास्त्र के अनुसार विजय की इच्छा रखने वाले राजा को चाहिये कि वह शत्रु पक्ष के सैनिकों में से जो लोभी हो, किंतु जिसे वेतन न मिला हो, जो मानी हो किंतु किसी तरह अपमानित हो गया हो, जो क्रोधी हो और उसे क्रोध दिलाया गया हो, जो स्वभाव से ही डरने वाला हो और उसे पुनः डरा दिया गया हो- इन चार प्रकार के लोगों को फोड़ ले और अपने पक्ष में ऐसे लोग हों, तो उन्हें उचित सम्मान देकर मिला ले।
  27. व्यसन दो प्रकार के हैं- दैव और मानुष। दैव व्यसन पाँच प्रकार के हैं- अग्नि, जल, व्याधि, दुर्भिक्ष और महामारी। मानुष व्यसन भी पाँच प्रकार का है- मूर्ख पुरुषों से, चोरों से, शत्रुओं से, राजा के प्रिय व्यक्ति से तथा राजा के लोभ से प्रजा को प्राप्त भय। (नीलकंठी टीका के अनुसार)
  28. क्योंकि शत्रुओं को वश में करने के लिये इनका प्रयोग आवश्यक है।
  29. आठ अंग और चार बल भारत कौमुदी टीका के अनुसार लिये गये हैं।
  30. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 59-66
  31. जो कि धर्माचरण का समय है
  32. कर-रूप में एकत्र किया हुआ
  33. सीमावर्ती गाँव का अधिपति अपने यहाँ का राजकीय कर एकत्र करके ग्रामाधिपति को दे, ग्रामाधिपति नगराधिपति को, वह देशाधिपति को और देशाधिपति साक्षात राजा को वह धन अर्पित करे।
  34. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 67-82
  35. पहले पहर के बाद
  36. दूसरे-तीसरे
  37. प्रार्थी या दर्शनार्थी
  38. नाड़ी, मल, मूत्र, जिह्वा, नेत्र, रूप, शब्द तथा स्पर्श- ये आठ चिकित्सा के प्रकार कहे जाते हैं।
  39. याचक
  40. राजा की ओर से मिली हुई वृत्ति बंद हो जाने से दुखी हो पुनः उसी को पाने के लिये प्रार्थी
  41. किंतु मारा नहीं गया
  42. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 83-97
  43. पीपल
  44. विचार और आचार
  45. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 98-112
  46. अधिक तो नहीं लेते
  47. अन्न
  48. पठन एवं अभ्यास
  49. लोहे की बनी हुई उन मशीनों को, जिनके द्वारा बारूद के बल से शीशे, काँसे और पत्थर की गोलियाँ चलायी जाती हैं-यन्त्र कहते हैं। उन यन्त्रों के प्रयोग की विधि के प्रतिपादक संक्षित वाक्य ही यन्त्रसूत्र हैं।
  50. नगर की रक्षा तथा उन्नति के साधनों को बताने वाले संक्षिप्त वाक्यों को ही यहाँ नागरिक सूत्र कहा गया है।
  51. जो मन्त्र बल से प्रयुक्त होते हैं
  52. त्याग दिया
  53. और वर्णाश्रमधर्म
  54. महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 113-129

संबंधित लेख

महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण | श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा | मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना | मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना | युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा | इन्द्र सभा का वर्णन | यमराज की सभा का वर्णन | वरुण की सभा का वर्णन | कुबेर की सभा का वर्णन | ब्रह्माजी की सभा का वर्णन | राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प | श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति | जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत | जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन | युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना | जरा राक्षसी का अपना परिचय देना | चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा | श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा | श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद | जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी | जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन | भीम और जरासंध का भीषण युद्ध | भीम द्वारा जरासंध का वध | जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा | अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय | अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना | किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय | भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान | भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना | सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय | नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना | राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन | राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम | भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा | शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन | युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना | भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना | भगवान नारायण की महिमा | भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध | वराह अवतार की संक्षिप्त कथा | नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा | वामन अवतार की संक्षिप्त कथा | दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा | परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा | कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण का प्राकट्य | कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध | अरिष्टासुर एवं कंस वध | श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास | श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना | नरकासुर का सैनिकों सहित वध | श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना | श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना | द्वारकापुरी का वर्णन | रुक्मिणी के महल का वर्णन | सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन | श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश | श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय | भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना | शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा | शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध | भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन | भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना | श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध | राजसूय यज्ञ की समाप्ति | श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता | दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना | युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना | पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत | दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध | धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना | युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन | दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन | दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना | द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना | विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत | विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना | जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद | द्यूतक्रीडा का आरम्भ | जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार | धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी | विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध | दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना | युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना | विदुर का दुर्योधन को फटकारना | दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना | सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न | भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना | विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध | द्रौपदी का चीरहरण | विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना | द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन | दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार | कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा | द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति | कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध | गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना | धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना | दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा | विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना | द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना | कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना | वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा | प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद | शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन | धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः