श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा

महाभारत सभा पर्व के ‘सभाक्रिया पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 2 के अनुसार श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! परम पूजनीय भगवान श्रीकृष्ण खाण्डवप्रस्थ में सुखपूर्वक रहकर प्रेमी पाण्डवों के द्वारा नित्य पूजित होते रहे। तदनन्तर पिता के दर्शन के लिये उत्सुक होकर विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर और कुन्ती की आज्ञा लेकर वहाँ से द्वारका जाने का विचार किया। जगद्वन्ध केशव ने अपनी बुआ कुन्ती के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और कुन्ती ने उनका मस्तक सूँघकर उन्हें हृदय से लगा लिया। तत्पश्चात महायशस्वी हृषीकेश अपनी बहिन सुभद्रा से मिले। उसके पास जाने पर स्नेहवश उनके नेत्रों में आँसू भर आये। भगवान ने मंगलमय वचन बोलने वाली कल्याणमयी सुभद्रा से बहुत थोडे़, सत्य, प्रयोजन पूर्ण, हितकारी, युक्तियुक्त एवं अकाट्‍य वचनों द्वारा अपने जाने की आवश्यकता बतायी[2]। सुभद्रा ने बार-बार भाई की पूजा करके मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और माता-पिता आदि स्वजनों से कहने के लिये संदेश दिये।

भामिनी सुभद्रा को प्रसन्न करके उससे जाने की अनुमति लेकर वृष्णि कुलभूषण जनार्दन द्रौपदी तथा धौम्य मुनि से मिले। पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने यथोचित रीति से धौम्य जी को प्रणाम किया और द्रौपदी को सान्त्वना दी। उसकी अनुमति लेकर वे अर्जुन के साथ अन्य भाईयों के पास गये। पाँचों भाई पाण्डवों से घिरे हुए विद्वान एवं बलवान श्रीकृष्ण देवताओं से घिरे हुए इन्द्र की भाँति सुशोभित हुए। तदनन्तर गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण ने यात्राकालोचित कर्म करने के लिये पवित्र हो स्नान करके अलंकार धारण किया। फिर उन यदुश्रेष्ठ ने प्रचुर पुष्प माला, जप, नमस्कार और चन्दन आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित पदार्थों द्वारा देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा की। प्रतिष्ठित पुरुषों में श्रेष्ठ यदुप्रवर श्रीकृष्ण यात्राकालोचित सब कार्य पूर्ण करके प्रस्थित हुए और भीतर से चलकर बाहरी ड्योढ़ी को पार करते हुए राजभवन से बाहर निकले। उस समय सुयोग्य ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन किया और भगवान ने दही से भरे पात्र, अक्षत, फल आदि के साथ उन ब्राह्मणों को धन देकर उन सबकी परिक्रमा की। इसके बाद गरुड़चिह्नित ध्वजा से सुशोभित और गदा, चक्र, खड्ग एवं शांर्गधनुष आदि आयुधों से सम्पन्न शैव्य, सुग्रीव आदि घोड़ों से युक्त शुभ सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हो कमलनयन श्रीकृष्ण ने उत्तम तिथि, शुभ नक्षत्र एवं गुणयुक्त मुहूर्त में यात्रा आरम्भ की। उस समय श्रीकृष्ण का रथ हाँकने वाले सारथियों में श्रेष्ठ दारुक को हटाकर उसके स्थान में राजा युधिष्ठिर प्रेमपूर्वक भगवान के साथ रथ पर जा बैठे। कुरुराज युधिष्ठिर ने घोड़ों की बागड़ोर स्वयं अपने हाथ में ले ली। फिर महाबाहु अर्जुन भी रथ पर बैठ गये और सुवर्णमय दण्ड से विभूषित श्वेत चँवर लेकर दाहिनी ओर से उनके ऊपर डुलाने लगे। इसी प्रकार नकुल, सहदेव सहित बलवान भीमसेन भी ऋत्विजों और पुरवासियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चल रहे थे। उन्होंने वेगपूर्वक आगे बढ़कर शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर दिव्य मालाओं से सुशोभित एवं सौ शलाकाओं[3] से युक्त स्वर्णविभूषित छत्र लगाया। उस छत्र में वैदूर्यमणिका डंडा लगा हुआ था। नकुल और सहदेव भी शीघ्रतापूर्वक रथ पर आरूढ़ हो श्वेत चँवर और व्यजन डुलाते हुए जनार्दन की सेवा करने लगे। उस समय अपने समस्त फुफेरे भाईयों से संयुक्त शत्रुदमन केशव ऐसी शोभा पाने लगे, मानो अपने प्रिय शिष्यों के साथ गुरु यात्रा कर रहे हों।[1] श्रीकृष्ण के विछोह से अर्जुन को बड़ी व्यथा हो रही थी। गोविन्द ने उन्हें हृदय से लगाकर उनसे जाने की अनुमति ली। फिर उन्होंने युधिष्ठिर और भीमसेन का चरण स्पर्श किया। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ने भगवान को छाती से लगा लिया और नकुल, सहदेव ने उनके चरणों में प्रणाम किया[4]। भारत! शत्रुविजयी श्रीकृष्ण ने दो कोस दूर चले जाने पर युधिष्ठिर से जाने की अनुमति ले यह अनुरोध किया कि ‘अब आप लौट जाइये।’ तदनन्तर धर्मज्ञ गोविन्द ने प्रणाम करके युधिष्ठिर के पैर पकड़ लिये। फिर पाण्डुकुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने यादवश्रेष्ठ कमलनयन केशव को दोनों हाथों से उठाकर उनका मस्तक सूँघा और ‘जाओ’ कहकर उन्हें जाने की आज्ञा दी। तत्पश्चात उनके साथ पुनः आने का निश्चित वादा करके भगवान मधुसूदन पैदल आये हुए नागरिकों सहित पाण्डवों को बड़ी कठिनाई से लौटाया और प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुरी द्वारका को गये, मानो इन्द्र अमरावती को जा रहे हों। जब तक वे दिखायी दिये, तब तक पाण्डव अपने नेत्रों द्वारा उनका अनुसरण करते रहे। अत्यन्त प्रेम के कारण उनका मन श्रीकृष्ण के साथ ही चला गया। अभी केशव के दर्शन से पाण्डवों का मन तृप्त नहीं हुआ था, तभी नयनाभिराम भगवान श्रीकृष्ण सहसा अदृश्य हो गये। पाण्डवों की श्रीकृष्ण दर्शनविषयक कामना अधूरी ही रह गयी। उन सबका मन भगवान गोविन्द के साथ ही चला गया। अब वे पुरुश्रेष्ठ पाण्डव मार्ग से लौटकर तुरंत अपने नगर की ओर चल पड़े। उधर श्रीकृष्ण भी रथ के द्वारा शीघ्र ही द्वारका जा पहुँचे। सात्वतवंशी वीर सात्यकि भगवान श्रीकृष्ण के पीछे बैठकर यात्रा कर रहे थे और सारथि दारुक आगे था। उन दोनों के साथ देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण वेगशाली गरुड़ की भाँति द्वारका में पहुँच गये।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! अपनी मर्यादा से च्युत न होने वाले धर्मराज युधिष्ठिर भाइयों सहित मार्ग से लौटकर सुहृदों के साथ अपने श्रेष्ठ नगर के भीतर प्रविष्ट हुए। राजन! वहाँ पुरुष सिंह धर्मराज ने समस्त सुहृदों, भाइयों और पुत्रों को विदा करके राजमहल में द्रौपदी के साथ बैठकर प्रसन्नता का अनुभव किया। इधर भगवान केशव भी उग्रसेन आदि श्रेष्ठ यादवों से सम्मानित हो प्रसन्नतापूर्वक द्वारकापुरी के भीतर गये। कमलनयन श्रीकृष्ण ने राजा उग्रसेन, बूढे़ पिता वसुदेव और यशस्विनी माता देवकी को प्रणाम करके बलराम जी के चरणों में मस्तक झुकाया। तत्पश्चात जनार्दन ने प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, चारुदेष्ण, गद, अनिरुद्ध तथा भानु आदि को स्नेहपूर्वक हृदय से लगाया और बडे़-बूढ़ों की आज्ञा लेकर रुक्मिणी के महल में प्रवेश किया। इधर महाभाग मय ने भी धर्मपुत्र युधिष्ठिर के लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित सभामण्डप बनाने की मन ही मन कल्पना की।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-19
  2. और उसे ढाढ़स बँधाया
  3. तिल्लियों
  4. तब भगवान ने भी उन दोनों को छाती से लगा लिया
  5. महाभारत सभा पर्व अध्याय 2 श्लोक 20-36

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