अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना

महाभारत सभा पर्व के ‘दिग्विजय पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 27 के अनुसार अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पानें का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उनके ऐसा कहने पर धनंजय ने भगदत्त से कहा - ‘राजन! आपने जो कर देना स्वीकार कर लिया, इतने से ही मेरस सब सत्कार हो जायगा, अब आज्ञा दीजिये, मैं जाता हूँ।’ भगदत्त को जीतकर महाबाहु कुन्ती पुत्र अर्जुन वहाँ से कुबेर द्वारा सुरक्षित उत्तर दिशा में गये। कुरुश्रेष्ठ धनंजय ने क्रमश: अन्बगिरि, बहिगिरि और उपगिरि नामक प्रदेशों पर बिजय प्रापत की। फिर समस्त पर्वतों और वहाँ निवास करने वाले राजाओं को अपने अधीन करके उन्होंने सबसे धन वसूल किये। तत्पश्चात् उन नरेशों को प्रसन्न करके उन सबके साथ उलूकवासी राजा वृहन्त पर आक्रमण किया। जुझाऊ बाजे श्रेष्ठ मृदंग आदि की ध्वनि, रथ के पहियों की घर्घराहट और हाथियों की गर्जना से वे इस पृथ्वी को कँपाते हुए आगे बढ़ रहे थे। तब राजा वृहन्त तुरंत ही चतुरंगिणी सेना के साथ नगर से बाहर निकले और अर्जुन से युद्ध करने लगे। उस समय अर्जुन और वृहन्त में बड़े जोर की मार काट शुरु हुई, परंतु वृहन्त पाण्डु पुत्र अर्जुन के पराक्रम को न सह सके। कुन्तीकुमार को असह्य मानकर दुर्धर्ष वीर पर्वतराज वृहन्त युद्ध से हट गये और सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर उनकी सेवा मं उपस्थित हुए। जनमेजय! अर्जुन ने वृहन्त का राज्य पुन: उन्हीं के हाथ में सौंपकर उलूक राज के साथ सेना बिन्दुपर आक्रमण किया और उन्हें शीघ्र ही राज्यच्युत कर दिया। तदनन्तर मोदापुर, वामदेव, सुदामा, सुसंकुल तथा उत्तर उलूक देशों और वहाँ के राजाओं को अपने अधीन किया।

राजन! धर्मराज की आज्ञा से किरीट धारी अर्जुन ने वहीं रहकर अपने सेवकों द्वारा पंचगण नामक देशों को जीत लिया। वहाँ से सेनाबिन्दु की राजधानी देवप्रस्थ में आकर चतुरंगिणी सेना के साथ शक्तिशाली अर्जुन ने वहीं पड़ाव डाला। नरश्रेष्ठ! उन सभी पराजित राजाओं से घिरे हुए महातेजस्वी अर्जुन ने पौरव राजा विश्वगश्व पर आक्रमण किया। वहाँ संग्राम में शूरवीर पर्वतीय महारथियों को परास्त करके पौरव द्वारा सुरक्षित उनकी राजधानी को भी सेना द्वारा जीत लिया। पौरव को युद्ध में जीतकर पर्वत निवासी लुटेरों के सात दलों पर, जो ‘उत्सवसंकेत’ कहलाते थे, पाण्डुकुमार अर्जुन ने विजय प्राप्त की। इसके बाद क्षत्रिय शिरोमणि धनंजय ने काश्मीर के क्षत्रियवीरों को तथा दस मण्डलों के साथ राजा लोहित को भी जीत लिया। तदनन्तर त्रिगर्त, दार्व और कोकनद आदि बहत से क्षत्रिय नरेशगण सब ओर से कुन्तीनन्दन अर्जुन की शरण में आये। इसके बाद कुरुनन्दन धनंजय ने रमणीय अभिसारी नगरीय पर विजय पायी और उदगावासी राजा रोचमान को भी युद्ध में परास्त किया। तदनन्तर इन्द्रकुमार अर्जुन ने राजा चित्रायुध के द्वारा सुरक्षित सुरम्य नगर सिंहपुर पर सेना लेकर आक्रमण किया और उसे युद्ध में जीत लिया। इसके बाद पाण्डव प्रवर कुरुकुल नन्दन किरीटी ने अपनी सारी सेना के साथ धावा करके सुह्म तथा चोल देश की सेनाओं को मथ डाला। तत्पश्चात् परम पराक्रमी इन्द्रकुमार ने बड़ी भारी मार काट मचाकर दुर्धर्ष वीर बाह्वीकों को वश में किया। पाण्डुनन्दन अर्जुन ने अपने साथ शक्तिशाली सेना लेकर काम्बोंजों के साथ दरदों को भी जीत लिया।[1]

ईशान कोण का आश्रय ले जो लुटेरे या डाकू वन में निवास करते थे, उन सब को शक्तिशाली धनंजय ने जीतकर वश में कर लिया। महाराज! लोह, परमकाम्बोज, ऋषिक तथा उत्तर देशों को भी अर्जुन ने एक साथ जीत लिया। ऋषिक देश में भी ऋषिकराज और अर्जुन में तारकामय संग्राम के समान बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। राजन! युद्ध के मुहाने पर ऋषिकों को हराकर अर्जुन ने तोते के उदर के समान हरे रंग वाले आठ घोड़े उन से भेंट लिये। इनके सिवा, मोर के समान रंग वाले उत्तम, गतिशील ओर शीघ्रगामी दूसरे भी बहुत से घोड़े वे करके रूप में वसूल कर लाये। इसके बाद पुरुषोत्तम अर्जुन संग्राम में हिमवान और निष्कुट प्रदेश के अधिपतियों को जीतकर धवलगिरि पर आये और वहीं सेना का पड़ाव डाला।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-16
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 27 श्लोक 24-29

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