द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 56 के अनुसार द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण वर्णन इस प्रकार है[1]-

शकुनि का दुर्योधन को द्यूत क्रीड़ा के लिए उकसाना

शकुनि बोला- विजयी वीरों में श्रेष्ठ दुर्योधन! तुम पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की जिस लक्ष्मी को देखकर संतप्त हो रहे हो, उसका मैं द्यूत के द्वारा अपहरण कर लूँगा। परंतु राजन्! तुम कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर को बुला लो। मैं किसी संशय में पड़ने बिना, सेना के सामने युद्ध किये बिना केवल पासे फेंक कर स्वयं किसी प्रकार की क्षति उठाये बिना ही पाण्डवों को जी लूँगा, क्योंकि मैं द्यूतविद्या का ज्ञाता हूँ और पाण्डव इस कला से अनभिज्ञ हैं। भारत! दावों को मेरे धनुष समझो और पासों को मेरे बाण। पासों का जो हृदय (मर्म) है, उसी को मेरे धनुष की प्रत्यन्चा समझों और जहाँ से पासे फेंके जाते हैं, वह स्थान ही मेरा रथ है। दुर्योधन बोला- राजन्! ये मामाजी पासे फेंकने की कला में निपुण हैं। ये द्यूत के द्वारा पाण्डवों से उनकी सम्पत्ति ले लेने का उत्साह रखते हैं। उसके लिये इन्हें आज्ञा दीजिये। धृतराष्ट्र बोले- बेटा! मैं अपने भाई महात्मा विदुर की सम्मति के अनुसार चलता हूँ। उनसे मिलकर यह जान सकूँगा कि इस कार्य के विषय में क्या निश्चय करना चाहिये? दुर्योधन बोला- पिताजी! विदुर सब प्रकार से संशय रहित है। वे आपकी बुद्धि को जूए के निश्चय से हटा देंगे। कुरुनन्दन! वे जैसे पाण्डवों के हित में संलग्र रहते हैं, वैसे मेरे हित में नहीं। मनुष्य को चाहिये कि वह अपना कार्य दूसरे के बल पर न करे। कुरुराज! किसी भी कार्य में दो पुरुषों की राय पूर्णरूप से नहीं मिलती। मूर्ख मनुष्य भय का त्याग और आत्मरक्षा करते हुए भी यदि चुपचाप बैठा रहे, उद्योग न करे, तो वह वर्षो काल में भींगी हुई चटाई के समान नष्ट हो जाता है। रोग अथवा यमराज इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि इसने श्रेय प्राप्त कर लिया या नहीं। अत: जब तक अपने में सामर्थ्य हो, तभी तक अपने हित का साधन कर लेना चाहिये। धृतराष्ट्र ने कहा- बेटा! मुझे तो बलवानों के साथ विरोध करना किसी प्रकार भी अच्छा नहीं लगता, क्योंकि वैर विरोध बड़ा भारी झगड़ा खड़ा कर देता है, जो (कुल के विनाश के लिए) बिना लोहे का शस्त्र है। राजकुमार! तुम द्यूतरूपी अनर्थ को ही अर्थ मान रहे हो। यह जूआ कहल को ही गूँथने वाला एवं अत्यन्त भयंकर है। यदि किसी प्रकार यह शुरु हो गया तो तीखी तलवारों और बाणों की भी सृष्टि कर देगा।[1]

दुर्योधन का धृतराष्ट्र से द्यूत के लिए आग्रह

दुर्योधन बोला- पिताजी! पुराने लोगों ने भी द्यूतक्रीड़ा का व्यवहार किया है। उसमें न तो दोष है और न युद्ध ही होता है। अत: आप शकुनि मामा की बात मान लीजिये और शीघ्र ही यहाँ (द्यूत के लिये) सभा मण्डप बन जाने की आज्ञा दीजिये। यह जूआ हम खेलने वालों के लिये एक विशिष्ट स्वर्गीय सुख का द्वार है। उसके आस-पास बैठने वाले लोगों के लिये भी वह वैसा ही सुखद होता है। इस प्रकार इसमें पाण्डवों को भी हमारे समान ही सुख प्राप्त होगा। अत: आप पाण्डवों के साथ द्यूतक्रीड़ा की व्यवस्था कीजिये।[1]

धृतराष्ट्र का पु:न दुर्योधन को समझाना

धृतराष्ट्र ने कहा- बेटा! तुमने जो बात कही है, वह मुझे अच्छी नही लगती। नरेन्द्र! जैसी तुम्हारी रुचि हो, वैसा करो। जूए का आरम्भ करने पर मेरी बातों को याद करके तुम पीछे पछताओगे, क्योंकि ऐसी बातें जो तुम्हारे मुख से निकली हैं, धर्मानुकूल नहीं कहीं जा सकतीं।[1] बुद्धि ओर विद्या का अनुसरण करने वाले विद्वान विदुर ने यह सब परिणाम पहले से ही देख लिया था। क्षत्रियों के लिये विनाश की वही यह महान् भय मुझ विवश के सामने आ रहा है।[1]

द्यूत सभा के निर्माण के लिए धृतराष्ट्र द्वारा सेवकों को आदेश

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने दैव को परम दुस्तर माना और देव के प्रताप से ही उनके चित्त पर मोह छा गया। वे कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हो गये। फिर पुत्र की बात मानकर उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही तत्पर होकर तोरण स्फाटिक नामक सभा तैयार कराओ। उसमें सुवर्ण तथा वैदूर्य से जटित एक हजार खम्भे और सौ दरवाजे हों। उस सुन्दर सभा की लम्बाई और चौड़ाई एक-एक कोस की होनी चाहिये। उनकी यह आज्ञा सुनकर तेज काम करने वाले चतुर एवं बुद्धिमान सहस्रोंक शिल्पीे निर्भिक होकर काम में लग गये। उन्हों ने शीघ्र ही वह सभा तैयार कर दी और उसमें सब तरह की वस्तुतएँ यथास्थाल सजा दीं। थोडे़ ही समय में तैयार हुई उस असंख्य रत्नों से सुशोभित रमणीय एवं विचित्र सभा को अद्भुत सोने के आसनों द्वारा सजा दिया गया। तत्पश्चात् विश्वस्तर सेवकों ने राजा धृतराष्ट्र- को उस सभा भवन के तैयार हो जाने की सूचना दी। तत्पश्चात् विद्वान् राजा धृतराष्ट्र ने मन्त्रियों में प्रधान विदुर को आज्ञा दी कि तुम राजकुमार युधिष्ठिर के पास जाकर मेरी आज्ञा से उन्हें शीघ्र यहाँ लिवा लाओ। उनसे कहना, ‘मेरी यह विचित्र सभा अनेक प्रकार के रत्नों से जटित है। इसे बहुमूल्य शय्याओं और आसनों द्वारा सजाया गया है। युधिष्ठिर! तुम अपने भाइयों के साथ यहाँ आकर इसे देखो और इसमें सुहृदों की द्यूत क्रीड़ा प्रारम्भ हो’[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 महाभारत सभा पर्व अध्याय 56 श्लोक 1-15
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 56 श्लोक 16-22

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