महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 64 के अनुसार विदुर का दुर्योधन को फटकारने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
विदुर का दुर्योधन को डाँटना व फटकारना
दुर्योधन बोला - विदुर! यहाँ आओ। तुम जाकर पाण्डवों की प्यारी और मनोनुकूल पत्नी द्रौपदी को यहाँ ले जाओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहाँ आये और मेरे महल में झाडू लगाये। उसे वहीं दासियों के साथ रहना होगा। विदुर बोला - ओ मूर्ख! तेरे-जैसे नीच के मुख से ही ऐसा दुर्वचन निकल सकता है। अरे! तू कालपाश से बँधा हुआ है, इसीलिये कुछ समझ नहीं पाता। तू ऐसे ऊँचे स्थान में लटक रहा है जहाँ से गिरकर प्राण जाने में अधिक विलम्ब नहीं; किंतु तुझे इस बात का पता नहीं है। तू एक साधारण मृग होकर व्याघ्रों को अत्यन्त क्रुद्ध कर रहा है। मन्दात्मन्! तेरे सिर पर कोप में भरे हुए महान् विषधर सर्प चढ़ आये हैं। तू उनका क्रोध न बढ़ा, यमलोक में जाने का उद्यत न हो। द्रौपदी कभी दासी नहीं हो सकती, क्यांकि राजा युधिष्ठिर जब पहले अपने को हारकर द्रौपदी को दाँव पर लगाने का अधिकार खो चुके थे, उस दशा में उन्होंने इसे दाँव पर रखा है (अत: मेरा विश्वास है कि द्रौपदी हारी नहीं गयी)। जैसे बाँस अपने नाश के लिये ही फल धारण करता है, उसी प्रकार धृतराष्ट्र के पुत्र इस राजा दुर्योधन ने महान् भयदायक वैर की सृष्टि के लिये इस जूए के खेल को अपनाया है। यह ऐसा मतवाला हो गया है कि मौत सिर पर नाच रही है; कितु इसे उसका पता ही नहीं है। किसी को मर्मभेदी बात न कहे, किसी से कठोर वचन न बोले। नीच कर्म के द्वारा शत्रु को वश में करने की चेष्टा न करे। जिस बात से दूसरे को उद्वेग हो, जो जलन पैदा करने वाली नरक की प्राप्ति कराने वाली हो, वैसी बात मुँह से कभी निकाले। मुँह से जो कटु वचनरूपी बाण निकलते हैं, उनसे आहत हुआ मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्ता में डूबा रहता है। वे दूसरे के मर्म पर ही आघात करते है; अत: विद्वान् पुरुष को दूसरों के प्रति निष्ठुर वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। कहते है, एक बकरा कोई शस्त्र निगलने लगा; किंतु जब वह निगला ना जा सका, तब उसने पृथ्वी पर अपना सिर पटक-पटककर उस शस्त्र को निगल जाने का प्रयत्न किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि वह भयानक शस्त्र उस बकरे का ही गला काटने वाला हो गया। इसी प्रकार तुम पाण्डवों से वैर न ठानो। कुन्ती के पुत्र किसी वनवासी, गृहस्थ, तपस्वी अथवा विद्वान् से ऐसी कड़ी बात कभी नहीं बोलते। तुम्हारे-जैसे कुत्ते-से स्वभाव वाले मनुष्य ही सदा इस तरह दूसरों को भूँका करते हैं। धृतराष्ट्र का पुत्र नरक के अत्यन्त भयंकर एवं कुटिल द्वार को नहीं देख रहा है। दु:शासन के साथ कौरवों से बहुत-से लोग दुर्योधन की इस द्यूतक्रीड़ा में उसके साथी बन गये। चाहे तूँबी जल में डूब जाय, पत्थर तैरने लग जाय तथा नौकाएँ भी सदा ही जल में डूब जाया करें; परंतु धृतराष्ट्र का यह मूर्ख पुत्र राजा दुर्योधन मेरी हितकर बातें नहीं सुन सकता। यह दुर्योधन निश्चय ही कुरुकुल का नाश करने वाला होगा। इसके द्वारा अत्यन्त भयंकर सर्वनाश का अवसर उपस्थित होगा। वह अपने सुहृदों का पाण्डित्यपूर्ण हितकर वचन भी नहीं सुनता; इसका लोभ बढ़ता ही जा रहा है।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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