कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 71 के अनुसार कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

कर्ण का द्रौपदी को दुर्योधन की दासी बनने के लिए प्रेरित करना

कर्ण बोला - भद्रे द्रौपदी! दास, पुत्र और सदा पराधीन रहने वाली स्‍त्री - ये तीनों धन के स्‍वामी नहीं होते। जिसका पति अपने ऐश्‍वर्य से भ्रष्‍ट हो गया है, ऐसी निर्धन दास की पत्‍नी और दास का सारा धन- इन सब पर उस दास के स्‍वामी का ही अधिकार होता है। राजकुमारी! अत: अब तुम राजा दुर्योधन के परिवार में जाकर सबकी सेवा करो। यही कार्य तुम्‍हारे लिये शेष बचा है, जिसके लिये तुम्‍हें यहाँ आदेश दिया जा रहा है। आज से धृतराष्‍ट्र के समस्‍त पुत्र ही तुम्‍हारे स्‍वामी हैं, कुन्‍ती के पुत्र नहीं। सुन्‍दरी अब तुम शीघ्र ही दूसरा पति चुन लो, जिससे द्यूतक्रीडा के द्वारा तुम्‍हें फिर किसी को दासी न बनना पड़े। पतियों के प्रति इच्‍छानुसार बर्ताव तुम-जैसी स्‍त्री के लिये निन्‍दनीय नहीं है। दासीपन में तो स्‍त्री की स्‍वेच्‍छाचारिता प्रसिद्ध है ही, अत: यह दास्‍य भाव ही तुम्‍हें प्राप्‍त हो। यज्ञसेन कुमारी! नकुल हार गये, भीमसेन, युधिष्ठिर, सहदेव तथा अर्जुन भी पराजित होकर दास बने गये। अब तुम दासी हो चुकी हो। वे हारे हुए पाण्‍डव अब तुम्‍हारे पति नहीं हैं। क्‍या कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर इस जीवन में पराक्रम और पुरुषार्थ की आवश्‍यकता नहीं समझते, जिन्‍होंने सभा में इस द्रपद राजकुमारी कृष्‍णो को दाँव पर लगाकर जूए का खेल किया ?[1]

भीमसेन का क्रोधित होना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! कर्ण की वह बात सुनकर अत्‍यन्‍त अमर्ष में भरे हुए भीमसेन बड़ी वेदना का अनुभव करते हुए उस समय जोर-जोर से अच्‍छ् वास लेने। वे राजा युधिष्ठिर के अनुगामी होकर धर्म के पाश में बँधे हुए थे। क्रोध से उनके नेत्र रक्‍तवर्ण हो रहे थे। वे युधिष्ठिर दग्‍ध करते हुए-से बोले। भीमसेन ने कहा - राजन्! मुझे सूत पुत्र कर्ण पर क्रोध नहीं आता। सचमुच ही दसधर्म वही है, जो उसने बताया है। महाराज! यदि आप इस द्रौपदी को दाँव पर लगाकर जूआ न खेलते तो क्‍या ये शत्रु हम लोगों से ऐसी बातें कह सकते थे ?[1]

दुर्योधन का युधिष्ठिर और द्रौपदी पर व्यंग करना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- भीमसेन का यह कथन सुनकर उस समय राजा दुर्योधन ने मौन एवं अचेत की सी दशा में बैठे हुए युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ‘नरेश! भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव आपकी आज्ञा के अधीन हैं। आप ही द्रौपदी के प्रश्‍न पर कुछ बोलिये। क्‍या आप कृष्‍णा को हारी हुई नहीं मानते हैं ?’ कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर से ऐसा कहकर ऐश्‍वर्य से मोहित हुए दुर्योधन ने इशारे में राधानन्‍दन कर्ण को बढ़ावा देते और भीमसेन का तिरस्‍कार-सा करते हुए अपनी जाँघ का वस्‍त्र हटाकर द्रौपदी की ओर मुस्‍कराते हुए देखा। उसने केले के खंभे के समान मोटी, समस्‍त लक्षणों से सुशोभित, हाथी की सूँड के सहश चढ़ाव- उतारवाली और बज्र के समान कठोर अपनी बायीं जाँघ द्रौपदी- की दृष्टि के सामने करके दिखायी।[1]

भीम का दुर्योधन पर क्रोधित होना

उसे देखकर भीमसेन आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। वे आँखें फाड़-फाड़कर देखते और सारी सभा को सुनाते हुए-से राजओं के बीच में बोले–‘दुर्योधन! यदि महासभा में तेरी इस जाँघ को मैं अपनी गदा से तोड़ डालूँ तो मुझे भीमसेन को अपने पूर्वजों के साथ उन्‍हीं के समान पुण्‍य लोकों की प्राप्ति न हो’।[1] उस समय क्रोध में भरे हुए भीमसेन के रोम-रोम से आग की चिनगारियाँ निकल रही थी; ठीक उसी तरह, जैसे जलते हुए वृक्ष के कोटरों से आग की लपटें निकलती दिखायी देती हैं।[2]

विदुर का कौरवों को समझाना

विदुरजी ने कहा - धृतराष्‍ट्र के पुत्रों! देखो, भीमसेन- से यह बड़ा भारी मय उपस्थित हो गया है। इस पर ध्‍यान दो। निश्‍चय ही प्रारब्‍ध की प्रेरणा से ही भरतवंशियों के समक्ष यह महान् अन्‍याय उत्‍पन्‍न् हुआ है। धृतराष्‍ट्र के पुत्रों। तुम लोगों ने मर्यादा का उल्‍लंघन करके यह जूए का खेल किया है। तभी तो तुम भरी सभा में स्‍त्री को लाकर उसके लिये विवाद कर रहे हो। तुम्‍हारे योग और क्षेम दोनों पूर्णतया नष्‍ट हो रहे हैं। आज सब लोगों को मालूम हो गया कि कौरव पापपूर्ण मन्‍त्रणा ही करते हैं। कौरवों! तुम धर्म की इस महत्ता को शीघ्र ही समक्ष लो; क्‍योंकि धर्म का नाश होने पर सारी सभा को दोष लगता है। यदि जूआ खेलने वाले राजा युधिष्ठिर अपने शरीर को हारे बिना पहले ही इस द्रौपदी को दाँव पर लगाते तो वे ऐसा करने के अधिकारी हो सकते थे। (परंतु वे पहले अपने को हारकर उसे दाँव पर लगाने का अधिकार ही खो बैठे थे, तब उसका मूल्‍य ही क्‍या रहा ?) अनधिकारी पुरुष जिस धन को दाँव पर लगता है, उसकी हार-जीत मैं वैसी ही मानता हूँ जैसे कोई स्‍वप्र में किसी धन को हारता या जीतता है। कौरवो! तुम लोग गान्‍धारराज शकुनि की बात सुनकर अपने धर्म से भ्रष्‍ट न होओ। दुर्योधन बोला - द्रौपदी! मैं भीम,अर्जुन एवं नकुल-सहदेव की बात मानने के लिए तैयार हूँ। ये सब लोग कह दें कि युधिष्ठिर को तुम्‍हें हारने का कोई अधिकार नहीं था, फिर तुम दासीपन से मुक्‍त कर दी जाओगी।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 71 श्लोक 15-26

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