जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति

महाभारत सभा पर्व के ‘जरासंध वध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 24 के अनुसार जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम का राजाओं को कैद से मुक्त कराना

अब वह उत्तम ध्वज सहस्रों किरणों से आवृत मध्याह काल के सूर्य की भाँति अपने तेज से अधिक प्रकाशित होने लगा। प्राणियों के लिये उसकी ओर देखना कठिन हो गया। वह वृक्षोंं में कहीं अटकता नहीं था, अस्त्र-शस्त्रों द्वारा कटता नहीं था। राजन्! वह दिवय और श्रेष्ठ ध्वज इस लोक के मनुष्यों को दृष्टिगोचर मात्र होता था। मेघ के समान गम्भीर घर्घर ध्वनि से परिपूर्ण उसी दिव्य रथ पर भीमसेन और अर्जुन के साथ बैठे हुए पुरुष सिंह भगवान् श्रीकृष्ण नगर से बाहर निकले। राजन्! इन्द्र से उस रथ को राजा वसु ने प्राप्त किया था। फिर क्रमश: वसु से बृहद्रथ को और बृहद्रथ से जरासंध को वह रथ मिला था। महायशस्वी कमलनयन महाबाहु श्रीकृष्ण गिरिब्रज से बाहर आ समतल भूमि पर खड़े हुए। जनमेजय! वहाँ ब्राह्मण आदि सभी नागरिकों ने शास्त्रीय विधि से उनका सत्कार एवं पूजन किया। कैद से छूटे हुए राजाओं ने भी मुधुसूदन की पूजा की और उनकी स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा-। ‘महाबाहो! आप देवकी देवी को आनन्दित करने वाले साक्षात् भगवान् हैं, भीमसेन और अर्जुन का बल भी आपके साथ है। आपके द्वारा जो धर्म की रक्षा हो रही है, वह आप सरीखे धर्मावतार के लिये आश्चर्य की बात नहीं है।[1] ‘प्रभो! हम सब राजा दु:खरूपी पंक से युक्त जरासंध रूपी भयानक कुण्ड में डूब रहे थे, आपने जो आज हमारा यह उद्धार किया है, वह आपके योग्य ही है। ‘विष्णो! अत्यन्त भयंकर पहाड़ी किले में कैद हो हम बड़े दु:ख से दिन काट रहे थे। यदुनन्दन! आपने हमें इस संकट से मुक्त करके अत्यन्त उज्ज्वल यश प्राप्त किया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। ‘पुरुषसिंह! हम आपके चरणों मं पड़े हैं। आप हमें आशा दीजिये, हम क्या सेवा करें? कोई दुष्कर कार्य हो तो भी आपको यह समझना चाहिये मानो हम सब राजाओं ने मिलकर उसे पूर्ण कर ही दिया’। तब महामाना भगवान् ह्रषीकेश ने उन सबको आश्वासन देकर कहा- ‘राजाओ! धर्मराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। ‘धम्र में तत्पर रहते हुए ही उन्हें सम्राट् पद प्राप्त करने की इच्छा हुई है। इस कार्य में तुम सब लोग उनकी सहायकता करो’। नृ¸पश्रेष्ठ जनमेजय! तब उन सभी राजाओं ने प्रसन्नचित्त हो ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् की वह आशा शिरोधार्य कर ली। इतना ही नहीं, उन भूपालों ने दशार्हकुल भूषण भगवान को रत्न भेंट किये। भगवान् गोविन्द ने बड़ी कठिनाई से, उन सब पर कृपा करने के लिये ही, वह भेंट स्वीकार की। तदनन्तर जरासंध का पुत्र महामना सहदवे पुरोहित को आगे करके सेवकों और मन्त्रियों के साथ नगर से बाहल निकला। उसके आगे रत्नों का बहुत बड़ा भण्डार आ रहा था। सहदवे अत्यन्त विनीतभाव से चरणों में पड़कर नरदेव भगवान वासुदेव की शरण में आया था।[1]

जरासंध के पुत्र का श्रीकृष्ण से पिता के अपराध के लिए क्षमा याचना करना

सहदेव बोला- पुरुषसिंह जनार्दन! महाबाहु पुरुषोततम! मेरे पिता ने जो अपराध किया है, उसे आप अपने हृदय से निकाल दें। गोविन्द! मैं आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मुझ पर कृपा कीजिये। देवकीनन्दन! मैं अपने पिता का दाहसंस्कार करना चाहता हूँ।। आपसे, भीमसेन से तथा अर्जुन से आज्ञा लेकर वह कार्य करूँगा और आपकी कृपा से निर्भय हो इच्छानुसार सुख पूर्वक विचरूँगा।[2]

श्रीकृष्ण द्वारा सहदेव की बात का अनुमोदन करना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! सहदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तथा महारथी भीमसेन और अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए।। उन सबने एक स्वर से कहा- ‘राजन्! तुम अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार करो।’ भगवान् श्रीकृष्ण तथा दोनों कुन्तीकुमारों का यह आदेश सुनकर मगधराज कुमार ने मंत्रियों के साथ शीघ्र ही नगर में प्रवेश किया। फिर चन्दन की लकड़ी तथा केशर, देवदारु और काला अगुरु आदि सुगन्धित काष्ठों से चिता बनाकर उस पर मगधराज का शव रखा गया। तत्पश्चात् जलती चिता में दग्ध होते हुए मगधराज के शरीर पर नाना प्रकार के चन्दनादि सुगन्धित तैल और घी की धाराएँ गिरायी गयीं। सब ओर से अक्षत और फूलों की वर्षा की गयी। शवदाह के पश्चात् सहदेव ने अपने छोटे भाई के साथ पिता के लिये जलाजंलि दी। इस प्रकार पिता का परलौकिक कार्य करके राजकुमार सहदेव नगर से निकलकर उस स्थान में गया, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण तथा महाभाग पाण्डुपुत्र भीमसेन और अर्जुन विद्यमान थे। उसने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा।[2]

जरासंध पुत्र का कृष्ण और युधिष्ठिर को उपहार देना

सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये।। वह भय से पीड़ित हो रहा था, पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अभयदान देकर उसके लाये हुए बहुमूल्य रत्नों की भेंट स्वीकार कर ली। तत्पश्चात् जरासंध कुमार को प्रसन्नतापूर्वक वहीं पिता के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। श्रीकृष्ण ने सहदेव को अपना अभिन्न सुह्रद् बना लिया, इसलिये भीमसेन और अर्जुन ने भी उसका बड़ा सत्कार किया। राजन्! उन महात्माओं द्वारा अभिषिक्त हो महाबाहु जरासंधपुत्र तेजस्वी राजा सहदेव अपने पिता के नगर में लौट गया। और पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने सर्वाेत्तम शोभा से सम्पन्न हो प्रचुर रत्नां की भेंट ले दोनों कुन्तीकुमारों के साथ वहाँ से प्रस्थान किया।[2]

अर्जुन, भीम और कृष्ण का युधिष्ठिर को जरासंध के वध की सूचना देना

भीमसेन और अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ में आकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से मिले और अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले-। ‘नृपश्रेष्ठ! सौभाग्य की बात है कि महाबली भीमसेन ने जरासंध को मार गिराया और समस्त राजाओं को उसकी कैद से छुड़ा दिया। ‘भारत! भाग्य से ही ये दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन अपने नगर में पुन: सकुशल लौट आये और इन्हें कोई क्षति नहीं पहुँची’। तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण का यथायोग्य सत्कार करके भीमसेन और अर्जुन को भी प्रसन्नतापूर्वक गले लगाया। तदनन्तर जरासंध के नष्ट होने पर अपने दोनों भाईयों द्वारा की हुर्ह विजय को पाकर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर भाईयों सहित आनन्दमग्र हो गये।[2] फिर धर्मराज ने हर्ष में भरकर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा। युधिष्ठिर बोले- पुरुषसिंह जनार्दन! आपका सहारा पाकर ही भीमसेन ने बल के अभिमान से उन्मत्त रहने वाले प्रतापी मगधराज जरासंध को मार गिराया है।। अब मैं निश्चिन्त होकर यज्ञों में श्रेष्ठ राजसूय का शुभ अवसर प्राप्त करूँगा। प्रभो! आपके बुद्धि बल का सहारा पाकर मैं यज्ञ करने योग्य हो गया।। पुरुषोत्तम! इस युद्ध से भूमण्डल में आपके यश का विस्तार हुआ। जरासंध के वध से ही आपको प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त हुई है।[3]

युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण को रथ भेंट करना

वैशमपायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर कुतीनन्दन युधिष्ठिर ने भगवान को श्रेष्ठ रथ प्रदान किया। जरासंध के उस रथ को पाकर गोविन्द बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुन के साथ उसमें बैठकर बड़े हर्ष का अनुभव करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर के उस भेंट को अंगीकार करके उन्हें बड़ा संतोष हुआ। पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर भाईयों के साथ जाकर समस्त राजाओं से उनकी अवस्था के अनुसार क्रमश: मिले, फिर उन सबका यथायोग्य सत्कार एवं पूजन करके उन्होंने सभी नरपतियों को विदा कर दिया। राजा युधिष्ठिर की आज्ञा ले वे सब नरेश मन ही मन अत्यन्त प्रसन् न हो अनेक प्रकार की सवारियों द्वारा शीघ्रतापर्वूक अपने अपने देश को चले गये। जनमेजय! इस प्रकार महाबुद्धिमान पुरुषसिंह जनार्दन ने उस समय पाण्डवों द्वारा अपने शत्रु जरासंध का वध करवाया।[3]

श्रीकृष्ण का सकुशल द्वारकापुरी जाना

भारत! जरासंध को बुद्धि पर्वूक मरवाकर शत्रुदमन श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर, कुन्ती तथा द्रौपदी से आज्ञा ले, सुभद्रा, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा धौम्यजी से भी पूछकर धर्मराज के दिये हुए उसी मन के समान वेगशाली दिव्य एवं उत्तम रथ के द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाते हुए अपनी द्वारकापुरी को चले गये। भरतश्रेष्ठ! जाते समय युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवों ने अनायास ही सब कार्य करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की परिक्रमा की। भारत! महान् विजय को प्राप्त करके और जरासंध के द्वारा कैद किये हुए उन रजाओं को अभयदान देकर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर उक्त कर्म के द्वारा पाण्डवों के यश का बहुत विस्तार हुआ और वे पाण्डव द्रौपदी की भी प्रीति को बढ़ाने लगे। उस समय धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिये जो उचित कर्तव्य था, उनका राजा युधिष्ठिर ने धर्म पर्वूक पालन किया। वे प्राजाओं की रक्षा करने के साथ ही उन्हें धर्म का उपदेश भी देते रहते थे।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 25-41
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 42-50
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 51-60

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