दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना

महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 64 के अनुसार दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन का प्रतिकामी को आज्ञा देना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन गर्व से उन्‍मत्त हो रहा था। उसने 'विदुर को धिक्कार है' ऐसा कहकर प्रातिकामी की ओर देखा सभा में बैठे हुए श्रेष्‍ठ पुरुषों के बीच उससे कहा। दुर्योधन बोला - प्रातिकार्मिन्! तुम द्रौपदी को यहाँ ले आओ। तुम्‍हें पाण्‍डवों से कोई भय नहीं है। ये विदुर तो डरपोक हैं, अत: सदा ऐसी ही बातें कहा करते हैं। ये कभी हम लोगों की वुद्धि नहीं चाहते। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! दुर्योधन के ऐसा कहने पर राजा की आज्ञा शिरोधार्य करके वह सूत प्रातिकामी शीघ्र चला गया एवं जैसे कुत्‍ता सिंह की माँद में घुसें, उसी प्रकार उस राजभवन में प्रवेश करके वह पाण्‍डवों की महारानी के पास गया।

प्रतिकामी और द्रौपदी का संवाद

प्रातिकामी बोला- द्रुपदकुमारी! धर्मराज युधिष्ठिर जूए के मद से उन्‍मत्त हो गये थे। उन्‍होंने सर्वस्‍व हारकर आप-को दाँव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी! अब आप धृतराष्‍ट्र के महल में पधारें। मैं आपको वहाँ दासी का काम करवाने के लिये ले चलता हूँ। द्रौपदीने कहा - प्रातिकामिन्! तू ऐसी बात कैसे कहता है ? कौन राजकुमार अपनी पत्‍नी को दाँव पर रखकर जूआ खेलेगा ? क्‍या राजा युधिष्ठिर जूए के नशे में इतने पागल हो गये कि उनके पास जुआरियों को देने के लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया? प्रातिकामी बोला - राजकुमारी! जब जुआरियों को देने के लिये दूसरा कोई धन नहीं रह गया, तब अजातशत्रु पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर इस प्रकार जुआ खेलने लगे। पहले तो उन्‍होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाया उसके बाद अपने को और अन्‍त में आपको भी दाँव पर रख दिया। द्रौपदी ने कहा - सूतपुत्र! तुम सभा में उन जुआरी महाराज के पास जाओ और जाकर यह पूछो कि ‘आप पहले अपने को हारे थे या मुझे ?' सूतनन्‍दन! यह जानकर आओ। तब मुझे ले चलो। राजा क्‍या करना चाहते हैं ? यह जानकर ही मैं दु:खिनी अबला उस सभा में चलूँगी। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! प्रातिकामी ने सभा में जाकर राजाओं के बीच में बैठे हुए युधिष्ठिर से द्रौपदी की वह बात कर सुनायी। उसने कहा- ‘द्रौपदी आपसे पूछना चाहती है कि किस-किस वस्‍तु के स्‍वामी रहते हुए आप मुझे हारे हैं ? आप पहले अपने को हारे हैं या मुझे ?’ राजन्! उस समय युधिष्ठिर अचेत और निष्‍प्राण-से हो रहे थे, अत: उन्‍होंने प्रातिकामी को भला-बुरा कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब दुर्योधन बोला - सूतपुत्र! जाकर कह दो, द्रौपदी यही आकर अपने इस प्रश्‍न को पूछे। यहीं सब सभासद् उसके प्रश्‍न और युधिष्ठिर के उत्तर को सुनें। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! प्रातिकामी दुर्योधन के वश में था, इसलिये वह राजभवन में जाकर द्रौपदी से व्यथित होकर बोला। प्रातिकामी ने कहा - राजकुमारी! वे (दुर्योधन आदि) सभासद् तुम्‍हें सभा में ही बुला रहे हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, अब कौरवों के विनाश का समय आ गया है। जो (दुर्योधन) इतना गिर गया है कि तुम्‍हें सभा में बुलाने का साहस करता है, वह कभी अपने धन-वैभव की रक्षा नहीं कर सकता।[1] द्रौपदी ने कहा - सूतपुत्र! निश्‍चय ही विधाता का ऐसा ही विधान है। बालक और वृद्ध सबको सुख-दु:ख प्राप्‍त होते हैं। जगत् में एक मात्र धर्म को ही श्रेष्‍ठ बतलाया जाता है। यदि हम उसका पालन करें तो वह हमारा कल्‍याण करेगा। मेरे इस धर्म का उल्‍लंघन न हो, इसलिये तुम सभा में बैठे हुए कुरुवंशियों के पास जाकर मेरी यह धर्मानुकूल बात पूछो—‘इस समय मुझे क्‍या करना चाहिये ?' वे धर्मात्‍मा, नीतिश और श्रेष्‍ठ महापुरुष मुझे जैसी आज्ञा देंगे, मैं निश्‍चय ही वैसा करूँगी। द्रौपदी का कथन सुनकर सूत प्रातिकामी ने पुन: सभा में जाकर द्रौपदी के प्रश्र को दुहराया; किंतु उस समय दुर्योधन के उस दुराग्रह को जानकर सभी नीचे मुँह किये बैठे रहे, कोई कुछ भी नहीं बोला।[2]-

युधिष्ठिर का द्रौपदी के पास दूत भेजना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं —जनमेजय! दुर्योधन क्‍या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठिर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह संदेश कहलाया, ‘पाचाल राजकुमारी! यद्यपि तुम रजस्‍वला और नीबी को नीचे रखकर एक ही वस्‍त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभा में आकर अपने श्रशुर के सामने खड़ी हो जाओ। ‘तुम-जैसी राजकुमारी को सभा में आयी देख सभी सभासद् मन-ही-मन इस दुर्योधन की निन्‍दा करेंगे’। राजन्! वह बुद्धिमान दूत तुरंत द्रौपदी के भवन में गया। वहाँ उसने धर्मराज का निश्चित मत उसे बता दिया। इधर महात्‍मा पाण्‍डव सत्‍य के बन्‍धन से बँधकर अत्‍यन्‍त दीन और दु:खमग्‍न हो गये। उन्‍हें कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। उनके दीन मुँह की ओर देखकर राजा दुर्योधन अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो सूत से बोला- ‘प्रातिकामिन्! तुम द्रौपदी को यहीं ले जाओ। उसके सामने ही धर्मात्‍मा कौरव उसके प्रश्‍नों का उत्तर देंगे’।[2]

दुर्योधन का दु:शासन को द्रौपदी को राज्य सभा में लाने का आदेश देना

तदनन्‍तर दुर्योधन के वश में रहने वाले प्रातिकामी ने द्रौपदी के क्रोध से डरते हुए अपने मान-सम्‍मान की परवा न करके पुन: सभा सदों से पूछा- ‘मैं द्रौपदी को क्‍या उत्तर दूँ ?’। दुर्योधन बोला - दु:शासन! यह मेरा सेवक सूतपूत्र प्रातिकामी बड़ा मूर्ख है। इसे भीमसेन का डर लगा हुआ है। तुम स्‍वयं द्रौपदी को यहाँ पकड़ लाओ। हमारे शत्रु पाण्‍डव इस समय हम लोगों के वश में हैं। वे तुम्‍हारा क्‍या कर लेंगे। भाई का यह आदेश सुनकर राजकुमार दु:शासन उठ खड़ा हुआ और लाल आँख किये वहाँ से चल दिया।[2]

दु:शासन का द्रौपदी को बालो से पकड़ कर घसीटना

महारथी पाण्‍डवों के महल में प्रवेश करके उसने राजकुमारी द्रौपदी से इस प्रकार कहा - ‘पांचालि! आओ, आओ, तुम जूए में जीती जा चुकी हो। कृष्‍णे! अब लज्‍जा छोड़कर दुर्योधन की ओर देखो। कमल के समान विशाल नेत्रों वाली द्रौपदी! हमने धर्म के अनुसार तुम्‍हें प्राप्‍त किया है, अत: तुम कौरवों की सेवा करो। अभी राजसभा में चली चलो’। यह सुनकर द्रौपदी का हृदय अत्‍यन्‍त दु:खित होने लगा। उसने अपने मलिन मुख को हाथ से पोंछा। फिर उठकर वह आर्त अबला उसी ओर भागी, जहाँ बूढ़े महाराज धृतराष्‍ट्र की स्त्रियों बैठी हुई थीं। तब दु:शासन भी रोष से गर्जता हुआ बड़े वेग से उसके पीछे दौड़ा। उसने महाराज युधिष्ठिर की पत्‍नी द्रौपदी के लम्‍बे, नीले और लहराते हुए केशों को पकड़ लिया। जो केश राजसूर्य महायज्ञ के अवभृथस्‍थान में मन्‍त्रपूत जल से सींचे गये थे, उन्‍हीं को दु:शासन ने पाण्‍डवों के पराक्रम की अवहेलना करके बलात्‍कार पूर्वक पकड़ लिया। लम्‍बे-लम्‍बे केशोंवाली वह द्रौपदी यद्यपि सनाथा थी, तो भी दु:शासन उस बेचारी आर्त अबला को अनाथ की भाँति घसीटता हुआ सभा के समीप ले आया और जैसे वायु केले के वृक्ष को झकझोरकर झुका देता है, उसी प्रकार वह द्रौपदी को बलपूर्वक खींचने लगा।[2]

द्रौपदी का दु:शासन से राज्य सभा में न जाने के लिए विनती करना

दु:शासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा - मन्‍दबुद्धि दुषृत्‍मा दु:शासन! मैं रजस्‍वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्‍त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है’। यह सुनकर दु:शासन उसके काले-काले केशों को और जोर से पकड़कर कुछ बकने लगा; इधर यज्ञ सेन कुमारी कृष्‍णा ने अपनी रक्षा के लिये सर्वपापहारी, सर्वविजयी, नरस्‍वरूप भगवान श्री कृष्‍ण को पुकारने लगी। दु:शासन बोला—द्रौपदी! तू रजस्‍वला, एकवस्‍त्रा अथवा नंगी ही क्‍यों न हो, हमने तुझे जूए में जीता है; अत: तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिये अब तुझे हमारी इच्‍छा अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गये थे। दु:शासन झकझोर ने से उसका आधा वस्‍त्र भी खिसकर गिर गया था। वह लाज से गड़ी जाती थी और भीतर-ही-भीतर क्रोध से दग्‍ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली। द्रौपदी ने कहा - अरे दुष्‍ट! ये सभा में शास्‍त्रों क विद्वान्, कर्मठ और इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी मेरे पिता के समान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में खड़ी होना नहीं चाहती। क्रूरकर्मा दुराचारी दु:शासन! तू इस प्रकार मुझे ने खींच, न खींच, मुझे वस्‍त्रहीन मत कर। इन्‍द्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिये आ जायँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पाण्‍डव तेरे इस अत्‍याचार को सहन नहीं कर सकेंगे। धर्मपुत्र महात्‍मा युधिष्ठिर धर्म में ही स्थित हैं। धर्म का स्‍वरूप बड़ा सूक्ष्‍म है। बुद्धिवाले धर्मपालन में निपुण महापुरुष ही उसे समझ सकते हैं। मैं अपने पति के गुणों को छोड़कर बाणीद्वारा उनके परमाणुतुल्‍य छोटे-से छोटे दोष को भी कहना नहीं चाहती। अरे! तू इन कौरववीरों के बीच में मुझे रजस्‍वला स्‍त्री को खींचकर लिये जा रहा है, यह अत्‍यन्‍त पाप पूर्ण कृत्‍य है। मैं देखती हूँ यहाँ कोई भी मनुष्‍य तेरे इस कुकर्म की निन्‍दा नहीं कर रहा है। निश्‍चय ही ये सब लोग तेरे मत में हो गये।[3]-

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 15-29
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 30-42

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