भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 36 के अनुसार भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

भीष्म का युधिष्ठिर को आयें हुए राजाओं के सत्कार के लिए कहना

जनमेजय! तत्पश्चात भीष्मजी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘भरतकुल भूषण युधिष्ठिर! अब तुम यहाँ पधारे हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, प्रिय मित्र तथा राजा- इन छाहों को अर्ध्य देकर पूजने योग्य बताया गया है। ‘ये यदि एक वर्ष बिताकर अपने यहाँ आवें तो इनके लिये अर्ध्य निवेदन करके इनकी पूजा करनी चाहिये, ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुषों का कथन है। ये सभी नरेश हमारे यहाँ सुदीर्यकाल के पश्चात पधारे हैं। इसलिये राजन्! तुम बारी-बारी से इन सबके लिये अर्ध्य दो और इन सबमें जो श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली हो, उसको सबसे पहले अर्ध्य समर्पित करो’।[1]

भीष्म का युधिष्ठिर को कृष्ण की अग्रपूजा के लिए कहना

युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुनन्दन पितामह! इन समागत नरेशों में किस एक को सबसे पहले अर्ध्य निवेदन करना आप उचित समझते हैं? यह मुझे बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- तब महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी बुद्धि से निश्चय करके भगवान श्रीकृष्ण को ही भूमण्डल में सबसे अधिक पूजनीय माना। भीष्म ने कहा- कुन्तीनन्दन! ये भगवान श्रीकृष्ण इन सब राजाओं के बीच में अपने तेज, बल और पराक्रम से उसी प्रकार देवीप्यमान हो रहे हैं, जैसे ग्रह नक्षत्रों में भुवन भास्कर भगवान सूर्य। अन्धकारपूर्ण स्थान जैसे सूर्य का उदय होने पर ज्योति से जगमग हो उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से सजीव सा हो जाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हमारी यह सभा आह्वादित और प्रकाशित हो रही है (अत: ये ही अग्रपूजा के योग्य हैं)। भीष्म की आज्ञा मिल जाने पर प्रतापी सहदेव ने वृष्णिकुल भूषण भगवान श्रीकृष्ण को विधिपूर्वक उत्तम अर्ध्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय विधि के अनुसार वह अर्ध्य स्वीकार किया। वसुदेवनन्दन भगवान श्रीहरि की वह पूजा राजा शिशुपाल नही सह सका। महाबली चेदिराज भरी सभा में भीष्म और धर्मराज युधिष्ठिर को उलाहना देकर भगवान वासुदेव पर आक्षेप करने लगा।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 36 श्लोक 15-32

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