श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्री विष्णु का दशरथ के यहाँ जन्म लेना

राजन्! अब महात्मा भगवान विष्णु के साक्षात् स्वरूप श्रीराम के अवतार का वर्णन सुनो, जो विश्वामित्र मुनि को आगे करके चलने वाले थे। चैत्रमास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को अविनाशी भगवान महाबाहु विष्णु ने अपने आपको चार स्वरूपों में विभक्त करके महराज दशरथ के सकाश से अवतार ग्रहण किया था। वे भगवान सूर्य के समान तेजस्वी राजकुमार लोक में श्रीराम के नाम से विख्यात हुए। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जगत को प्रसन्न करने तथा धर्म की स्थापना के लिये ही महायशस्वी सनातन भगवान विष्णु वहाँ प्रकट हुए थे।[1]

श्रीराम द्वारा मारीच, सुबाहु आदि राक्षसों का वध करना

मनुष्यों के स्वामी भगवान श्रीराम को साक्षात् सर्वभूतपति श्रीहरि का ही स्वरूप बतलाया जाता है। भारत! उस समय विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्र डालने के कारण राक्षस सुबाहु श्रीरामचन्द्र जी के हाथों मारा गया और मारीच नामक राक्षस को भी बड़ी चोट पहुँची। परम बुद्धिमान विश्वामित्र मुनि ने देवशत्रु राक्षसों का वध करने के लिये श्रीरामचन्द्र जी को ऐसे-ऐसे दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, जिनका निवारण करना देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन था।[1]

श्रीराम का सीता से विवाह

उन्हीं दिनों महात्मा जनक के यहाँ धनुष रूा हो रहा था, उसमें श्रीराम ने भगवान शंकर के महान् धनुष को खेल खेल में ही तोड़ डाला। तदनन्तर सीताजी के साथ विवाह करके रघुनाथजी अयौध्यापुरी में लौट आये और वहाँ सीताजी के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे।[2]-

पिता व माता कैकयी की आज्ञा से वनवास

कुछ काल के पश्चात पिता की आज्ञा पाकर वे अपनी विमाता महारानी कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से वन में चले गये। वहाँ सब धर्मों के ज्ञाता और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मण के साथ चौदह वर्षों तक वन में निवास किया। भरतवंशी राजन्! चौदह वर्षों तक उन्होंन वन में तपस्यापूर्वक जीवन बिताया। उनके साथ उनकी अत्यन्त रूपवती धर्मपत्नी भी थीं, जिन्हें लोग सीता कहते थे। अवतार के पहले श्री विष्णु रूप में रहते समय भगवान के साथ उनकी जो योग्यतमा भार्या लक्ष्मी रहा करती हैं, उन्होंने ही उपयुक्त होने के कारण श्रीरामावतार के समय सीता के रूप में अवतीर्ण हो अपने पतिदेव का अनुसरण किया था। भगवान श्रीराम जनस्थान में रहकर देवताओं के कार्य सिद्ध करते थे।[2]

श्रीराम द्वारा अनेक राक्षसों का वध

धर्मात्मा श्रीराम ने प्रजाजनों के हित की कामना से भयानक कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों का वध किया। जिनमें मारीच, खर-दूषण और त्रिशिरा आदि प्रधान थे। उन्हीं दिनों दो शापग्रस्त गन्धर्व कू्ररकर्मा राक्षसों के रूप में वहाँ रहते थे, जिनके नाम विराध और कबन्ध थे। श्रीराम ने उन दोनों का भी संहार कर डाला। उन्होंने रावण की बहिन शूर्पणखा की नाक भी लक्ष्मण के द्वारा कटवा दी,[2]

सीता का रावण द्वारा अपहरण और खोज

इसी के कारण (राक्षसों के षड्यन्त्र से) उन्हें पत्नी का वियोग देखना पड़ा। तब वे सीता की खोज करते हुए वन में विचरन ने लगे। तदनन्तर ऋष्यमूक पर्वत पर जा पम्पासरोवर को लाँघकर श्रीराम जी सुग्रीव और हनुमानजी से मिले और उन दोनों के साथ उन्होंने मैत्री स्थापित कर ली। तत्पश्चात श्रीरामचन्द्रजी ने सुग्रीव के साथ किष्किन्धा में जाकर महाबली वानरराज बाली को युद्ध में मारा और सुग्रीव को वानरों के राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया। राजन्! तदनन्दर पराक्रमी श्रीराम सीता जी के लिये उत्सुक्त हो बड़ी उतावली के साथ उनकी खोज कराने लगे। वायुपुत्र हनुमानजी ने पता लगाकर यह बतलाया कि सीताजी लंका में हैं। तब समुद्र पर पुल बाँधकर वानरों सहित श्रीराम ने सीताजी के स्थान का पता लगाते हुए लंका में प्रवेश किया। वहाँ देवता, नागगण, यक्ष, राक्षस तथा पक्षियों के लिये अवध्य और युद्ध में दुर्जय राक्षसराज रावण करोड़ों राक्षसों के साथ रहता था। वह देखने में खान से खोदकर निकाले हुए कोयले के ढेर के समान जान पड़ता था। देवताओं के लिये उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी कठिन था। ब्रह्माजी से वरदान मिलने से उसका घमंड बहुत बढ़ गया था।[2]

श्रीराम द्वारा रावण वध व विभिषण का अभिषेक

श्रीराम ने त्रिलोकी के लिये कण्टक रूप महाबली विशालकाय वीर रावण को उसके मन्त्रियों और वंशजों सहित युद्ध में मार डाला। इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों के स्वामी श्रीरघुनाथ जी ने प्राचीन काल में रावण को सेवकों सहित मारकर लंका के राज्य पर राक्षपति महात्मा विभीषण का अभिषेक करके उन्हें वहीं अमरत्व प्रदान किया। पाण्डुनन्दन! तत्पश्चात श्रीराम ने पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो सीता को साथ ले दलबल सहित अपनी राजधानी में जाकर धर्मपूर्वक राज्य का पालन किया। राजन्! उन्हीं दिनों मथुरा में मधु का पुत्र लवण नामक दानव राज्य करता था, जिसे रामचन्द्रजी की आज्ञा से शत्रुघ्न ने मार डाला।[2]

श्रीराम द्वारा लोकहित कार्य

इस प्रकार धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने लोकहित के लिये बहुत से कार्य करके विधिपूर्वक राज्य का पालन किया। उन्होंने दस अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान किया और सरयू तट के जारुधि प्रदेश को विघ्न बाधाओं से रहित कर दिया। श्रीरामचन्द्रजी के शासन काल में कभी कोई अमंगल की बात नहीं सुनी गयी। उस समय प्राणियों की अकाल मृत्यु नहीं होती थी और किसी को भी धन की रक्षा आदि के निमित्त भय नहीं प्राप्त होता था। विधवाओं का करुण क्रन्दन नहीं सुना जाता था तथा स्त्रियाँ अनाथ नहीं होती थीं। श्रीरामचन्द्रजी के राज्य शासन काल में सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट था। किसी भी वर्ण के लोग वर्ण सकंर संतान नहीं उत्पन्न करते थे। कोई मनुष्य ऐसी जमीन के लिये कर नहीं देता था, जो जोतने बोने के काम में न आती हो। बूढ़े लोग बालकों का अन्त्येष्टि संस्कार नहीं करते थे (उनके सामने ऐसा अवसर ही नहीं आता था)। वैश्य लोग क्षत्रियों की परिचर्चा करते थे और क्षत्रिय लोग भी वैश्यों को कष्ट नहीं होने देते थे। पुरुष अपनी पत्नियों की अवहेलना नहीं करते थे और पत्नियां भी पतियों की अवहेलना नहीं करती थीं। श्रीरामचन्द्र जी के राज्य शासन करते समय लोक में खेती की उपज कम नहीं होती थी। लोग सहस्र पुत्रों से युक्त होकर सहस्रों वर्षों तक जीवित रहते थे। श्रीराम के राज्य शान काल में सब प्राणी नीरोग थे। श्रीरामचन्द्रजी के राज्य में इस पृथ्वी पर ऋषि, देवता और मनुष्य साथ-साथ रहते थे। राजन्! भूमिपाल श्रीरघुनाथजी जिन दिनों सारी पृथ्वी का शासन करते थे, उस समय उनके राज्य में लोग पूर्णत: तृप्ति का अनुभव करते थे। धर्मात्मा राज राम के राज्य में पृथ्वी पर सब लोग तपस्या में ही लगे रहते थे और सब के सब धर्मानुरागी थी। श्रीराम के राज्य शासन काल में कोई भी मनुष्य अधर्म में प्रवृत्त नहीं होता था। सबके प्राण और अपान समवृत्ति में स्थित थे। जो पुराणवेत्ता विद्वान हैं, वे इस विषय में निम्नांकित गाथा गाया करते हैं- ‘भगवान श्रीराम की अंगकान्ति श्याम है, युवावस्था हैं, उनके नेत्रों में कुछ कुछ लाली है। वे गजराज जैसे पराक्रमी हैं। उनकी भुजाएँ घटनों तक लंबी हैं। मुख बहुत सुन्दर हैं। कंधे सिंह के समान हैं और वे महान बलशाली हैं। उन्होंने राज्य और भोग पाकर ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का शासन किया। प्रजाजनों में ‘राम राम राम’ इस प्रकार केवल राम की ही चर्चा होती थी। राम के राज्य शासन काल में यह सारा जगत राममय हो रहा था। उ समय के द्विज ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के ज्ञान में शून्य नहीं थे। इस प्रकार मनुष्यों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने दण्डकारण्य में निवास करके देवताओं का कार्य सिद्ध किया और पहले के अपराधी पुलस्त्यनन्दन रावण को, जो देवताओं, गन्धर्वों और नागों का शत्रु था, युद्ध में मारा गिराया। इक्ष्वाकु कुल का अभ्युदय करने वाले महाबाहु श्रीराम महान् पराक्रमी, सर्वगुण सम्पन्न और अपने तेज से देदीप्यमान थे। वे इसी प्रकार सेवकों सहित रावण का वध रके राज्य पालन के पश्चात साकेत लोक में पधारे। इस प्रकार परमात्मा दशरथ नन्दन श्रीराम के अवतार का वर्णन किया गया।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 14
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 15
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 16

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