महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 79 के अनुसार कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
- 1 कुन्ती का पुत्रों को देखकर विलाप करना
- 2 कुन्ती का पुत्रों को विलाप करते हुए समझाना
- 3 विदुर का शोकाकुल कुन्ती को धीरज बँँधाना व नगरवासियों का जाते हुए पाण्डवों को देखना
- 4 नगरवासियों का पाण्डवों के वन जाते समय आपस में शोकाकुल हो वार्तालाप करना
- 5 नगरवासियों का कौरवों को धिक्कारना और पाण्डवों के लिए शोक प्रकट करना
- 6 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 7 संबंधित लेख
कुन्ती का पुत्रों को देखकर विलाप करना
रोती-बिलखती, वन को जाती हुई द्रौपदी के पीछे-पीछे कुन्ती भी दु:ख से व्याकुल हो कुछ दूर तक गयीं, इतने ही में उन्होंने अपने सभी पुत्रों को देखा, जिनके वस्त्र और आभूषण उतार लिये गये थे। उनके सभी अंग मृगचर्म से ढँके हुए थे और वे लज्जावश नीचे मुख किये चले जा रहे थे। हर्ष में भरे हुए शत्रुओं ने उन्हें सब ओर से घेर रखा था और हितैषी सुहृद उनके लिये शोक कर रहे थे। उस अवस्था में उन सभी पुत्रों के निकट पहुँचकर कुन्ती के हृदय में अत्यन्त वात्सल्य उमड़ आया। वे उन्हें हृदय से लगाकर शोकवश बहुत विलाप करती हुई बोलीं।[1]
कुन्ती का पुत्रों को विलाप करते हुए समझाना
कुन्ती ने कहा - पुत्रो! तुम उत्तम धर्म का पालन करने वाले तथा सदाचारी की मर्यादा से विभूषित हो। तुममें क्षु्द्रता का अभाव है। तुम भगवान् के सुहृढ़ भक्त और देवाराधन में सदा तत्पर रहने वाले हो। तो भी तुम्हारे ऊपर यह विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है। विधाता का यह कैसा विपरीत विधान है। किसके अनिष्ट चिन्तन से तुम्हारे ऊपर यह महान् दु:ख आया है, यह बुद्धि से बार-बार विचार करने पर भी मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता। यह मेरे ही भाग्य का दोष हो सकता है। तुम तो उत्तम गुणों से युक्त हो तो भी अत्यन्त दु:ख और कष्ट भोगने के लिये ही मैंने तुम्हें जन्म दिया है।[1] इस प्रकार सम्पत्ति से वचिंत होकर तुम वन के दुर्गम स्थानों में कैसे रह सकोगे ? वीर्य, धैर्य, बल, उत्साह और तेज से परिपुष्ट होते हुए भी तुम दुर्बल हो। यदि मैं यह जानती कि नगर में आने पर तुम्हें निश्चय ही वनवास का कष्ट भोगना पड़ेगा तो महाराज पाण्डु के पर लोकवासी हो जाने पर शतश्रृङ्गपुर से हस्तिनापुर नहीं आती। मैं तो तुम्हारे तपस्वी एवं मेघावी पिता को ही धन्य मानती हूँ, जिन्होंने पुत्रों के दु:ख से दुखी होने का अवसर न पाकर स्वर्गलोक की अभिलाषा को ही प्रिय समझा। इसी प्रकार अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न एवं परमगति को प्राप्त हुई कल्याणमयी धर्मज्ञा माद्री को भी सर्वथा धन्य मानती हूँ। जिसने अपने अनुराग, उत्तम बुद्धि और सद्व्यवहार द्वारा मुझे भुलाकर जीवित रहने के लिये विवश कर दिया। मुझको और जीवन के प्रति मेरी इस आसक्ति को धिक्कार है! जिसके कारण मुझे यह महान् क्लेश भोगना पड़ता है। पुत्रों! तुम सदाचारी और मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। मैंने बड़े कष्ट से तुम्हें पाया है; अत: तुम्हें छोड़कर अलग नही रहूँगी। मैं भी तुम्हारे साथ वन में चलूँगी। हाय कृष्णे! तुम क्यों मुझे छोड़े जाती हो ? यह प्राण धारण रूपीधर्म अनित्य है, एक-न-एक दिन इसका अन्त होना निश्चित है, फिर भी विधाता ने जाने क्यों प्रमादवश मेरे जीवन का भी शीघ्र ही अन्त नहीं नियत कर दिया। तभी तो आयु मुझे छोड़ नही रही है। हा! द्वारकावासी श्रीकृष्ण! तुम कहाँ हो! बलरामजी-के छोटे भैया! मुझको तथा इन नरश्रेष्ठ पाण्डवों की इस दु:ख से क्यों नहीं बचाते ? 'प्रभो! तुम आदि-अन्त से रहित हो, जो मनुष्य तुम्हारा निरन्तर स्मरण करते है, उन्हें तुम अवश्य संकट से बचाते हो। 'तुम्हारी यह विरद व्यर्थ कैसे हो रही है? ये मेरे पुत्र उत्तम धर्म, महात्मा पुरुषों के शील-स्वभाव, यश और पराक्रम का अनुसरण करने वाले हैं, अत: कष्ट भोगने के योग्य नहीं है; भगवन्! इन पर तो दया करो। नीति के अर्थ को जानने वाले परम विद्वान् भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के, जो इस कुल के रक्षक हैं रहते हुए यह विपत्त्िा हम पर क्यों आयी ? हा महाराज पाण्डु! कहाँ हो ? आज तुम्हारे श्रेष्ठ पुत्रों को शत्रुओं ने जूए में जीतकर वनवास दे दिया है, तुम क्यों इनकी दुरवस्था की उपेक्षा कर रहे हो ? माद्रीनन्दन सहदेव! तुम मुझे अपने शरीर से भी अधिक प्रिय हो। बेटा! लौट आओ। कुपुत्र की भाँति मेरा त्याग न करो। तुम्हारे ये भाई यदि सत्य-धर्म के पालन का आग्रह रख-कर वन में जा रहे हैं तो जायँ; तुम यहीं रहकर मेरी रक्षा-जनित धर्म का लाभ लो। वैशम्पायनजी कहते हैं - इस प्रकार विलाप करती हुई माता कुन्ती को अभिवादन एवं प्रणाम करके पाण्डव लोग दुखी हो वन को चले गये।[2]
विदुर का शोकाकुल कुन्ती को धीरज बँँधाना व नगरवासियों का जाते हुए पाण्डवों को देखना
विदुरजी शोकाकुल कुन्ती को अनेक प्रकार की युक्तियों-द्वारा धीरज बँधाकर उन्हें धीरे-धीरे अपने घर ले गये। उस समय वे स्वयं भी बहुत दुखी थे। तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर जब वन की ओर प्रस्थित हुए, तब उस नगर के समस्त निवासी दु:ख से आतुर हो उन्हें देखने के लिये महलों, मकान की छतों, समस्त गोपुरों और वृक्षों पर चढ़ गये। वहाँ से सब लोग उदास होकर उन्हें देखने लगे। उस समय सड़कें मनुष्यों की भारी भीड़ से इतनी भर गयी थीं कि उन पर चलना असम्भव हो गया था। इसीलिये लोग ऊँचें चढ़-कर अत्यन्त दीनभाव से पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को देख रहे थे ॥ कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर छत्र रहित एवं पैदल ही चल रहे थे। शरीर पर राजोचित वस्त्रों और आभूषणों का भी अभाव था। वे वल्कल और मृगचर्म पहने हुए थे। उन्हें इस दशा में देखकर लोगों के हृदय में गहरी चोट पहुँची और वे सब लोग नाना प्रकार की बातें करने लगे ॥ नगर निवासी मनुष्य बोले - अहो! यात्रा करते समय जिनके पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चलती थी, आज वे ही राजा युधिष्ठिर इस प्रकार जा रहे हैं और उनके पीछे द्रौपदी के साथ केवल चार भाई पाण्डव तथा पुरोहित चल रहे हैं। जिसे आज से पहले आकाशचारी प्राणी तक नहीं देख पाते थे, उसी द्रुपद कुमारी कृष्णों को अब सड़क पर चलने वाले साधारण लोग भी देख रहे हैं। सुकुमारी द्रौपदी के अंगों में दिव्य अंगराग शोभा पाता था। वह लाल चन्दन का सेवन करती थी, परंतु अब वन में सदीं, गमीं ओर वर्षा लगने से उसकी अंग कान्ति शीघ्र ही फीकी पड़ जाएगी।[3]-
नगरवासियों का पाण्डवों के वन जाते समय आपस में शोकाकुल हो वार्तालाप करना
निश्चय ही आज कुन्ती देवी बड़े भारी धैर्य का आश्रय लेकर अपने पुत्रों और पुत्रवधू से वार्तालाप करती हैं; अन्यथा इस दशा में वे इनकी ओर देख भी नहीं सकतीं ॥ गुणहीन पुत्र का भी दु:ख माता से कैसे देखा जायेगा; फिर जिस पुत्र के सदाचार मात्र से यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उस पर कोई दु:ख आये, तो उसकी माता वह कैसे देख सकती है ? पुरुष रत्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को कोमलता, दया, धैर्य, शील, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह - ये छ: सद्रुण सुशोभित करते हैं। उनकी हानि से आज सारी प्रजा को बड़ी पीड़ा हो रही है ॥ जैसे गमीं में जलाशय का पानी घट जाने से जलचर जीव-जन्तु व्यथित हो उठते हैं एवं जड़ कट जाने से फल और फूलों से युक्त वृक्ष सूखने लगता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् के पालक महाराज युधिष्ठिर की पीड़ा से सारा संसार पीडित हो गया है। महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर मनुष्यों के मूल हैं। जगत् के दूसरे लोग उन्हीं की शाखा, पत्र, पुण्य और फल हैं। आज इस अपने पुत्रों और भाई-बन्धुओं को साथ लेकर चारों भाई पाण्डवों की भाँति शीघ्र उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलें, जिससे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर जा रहे हैं ॥ आज हम अपने श्वेत, बाग-बगीचे और घर-द्वार छोड़कर परम धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के साथ चल दें और उन्हीं के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझें ॥ हम अपने घरों की गड़ी हुई निधि निकाल लें। आँगन की फर्श खोद डालें। धन-धान्य साथ ले लें। सारी आवश्यक वस्तुएँ हटा लें। इनमें चारों ओर धूल भर जाय। देवता इन घरों को छोड़कर भाग जायँ। चूहे बिल से बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दोड़ लगाने लगें। इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाडू ही लगे। यहाँ बलि दैश्व देव, यज्ञ, मन्त्र पाठ, होम और जप बंद हो जाय।[3] मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस प्रकार ये सारे घर ढह जायँ। इनमें टूटे बर्तन बिखरे पड़े हो और हम सदा के लिये इन्हें छोड़ दें—ऐसी दशा में इन घरों पर कपटी सुबलपुत्र शकुनि अधिकार कर ले। अब जहाँ पाण्डव जा रहे हैं, वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देने पर यह नगर ही वन के रूप में परिणत हो जाय। वन में हम लोगों के भय से साँप अपने बिल छोड़कर भाग जायँ मृग और पक्षी जंगलों को छोड़ दें तथा हाथी और सिंह भी वहाँ से दूर चले जायँ। हम लोग तृण (साग-पात), अन्न और फल का उपयोग करने वाले हैं। जंगल के हिंसक पशु और पक्षी हमारे रहने के स्थानों को छोड़कर चल जायँ। वे ऐसे स्थान का आश्रय लें, जहाँ हम न जायँ और वे उन स्थानों को छोड़ दें, जिनका हम सेवन करें। हम लोग वन में कुन्ती पुत्रों के साथ बड़े सुख से रहेंगे।[4]
नगरवासियों का कौरवों को धिक्कारना और पाण्डवों के लिए शोक प्रकट करना
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार भिन्न-भिन्न मनुष्यों की कही हुई भाँति-भाँति की बातें युधिष्ठिर ने सुनीं। सुनकर भी उनके मन में कोई विकार नहीं आया। तदनन्तर चारों ओर महलों में रहने वाली ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की स्त्रियाँ अपने-अपने भवनों की खिड़कियों के पर्दे हटाकर दीन पाण्डवों को देखने लगीं। सब पाण्डवों ने मृगचर्म मय वस्त्र धारण कर रक्खा था। उनके साथ द्रौपदी भी पैदल ही चली जा रही थी। उसे उन स्त्रियों ने पहले कभी नहीं देखा था। उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था, कैश खुले हुए थे, वह रजस्वला थी और रोती चली जा रही थी। उसे देखकर उस समय सब स्त्रियों का मुख उदास हो गया। वे क्षोम एवं मोह के कारण नाना प्रकार सें विलाप करती हुई दु:ख शोक से पीडित हो गयीं और ‘हाय हाय! इन धृतराष्ट्र पुत्रों को बार-बार धिक्कार हैं, धिक्कार है’ ऐसा कहकर नेत्रों से आँसू बहाने लगीं। उसके वस्त्र खींचे जाने (एवं वन में जाने) आदि का सारा वृत्तान्त सुनकर कौरवों की अत्यन्त निन्दा करती हुई फूट-फूट- कर रोने लगीं और अपने मुखार विन्द को हथेली पर रखकर बहुत देर तक गहरी चिन्ता में डूबी रहीं। उस समय अपने पुत्रों के अन्याय का चिन्तन करके राजा धृतराष्ट्र का भी हृदय उद्विग्र हो उठा। उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली। चिन्ता में पड़े-पड़े उनकी एकाग्रता नष्ट हो गयी। उनका चित्त शोक से व्याकूल हो रहा था। उन्होंने विदुर के पास संदेश भेजा कि तुम शीघ्र मेरे पास चले आओ। तब विदुर राजा धृतराष्ट्र के महल में गये। उस समय महाराज धृतराष्ट्र ने अत्यन्त उद्विग्र होकर उनसे पूछा।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-1
- ↑ महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-2
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-3
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-4
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