राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 36 के अनुसार राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं के समागम का वर्णन इस प्रकार है[1]-

यज्ञ में ब्राह्मणों और राजाओं का समागम

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अभिषेचनीय[2] कर्म के दिन सत्कार के योग्य महर्षिगण और ब्राह्मण लोग राजाओं के साथ यज्ञ भवन में गये। महात्मा राजा युधिष्ठिर के उस यज्ञ भवन में राजर्षिर्यो के साथ बैठे हुर नारद आदि महर्षि उस समय ब्रह्माजी की सभा में एकत्र हुए देवताओं और देवर्षियों के समान सुशोभित हो रहे थे। बीच-बीच में यज्ञ सम्बन्धी एक-एक कर्म से आवकाश पाकर अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान् आपस में जल्प[3] (वाद-विवाद) करते थे। ‘यह इसी प्रकार होना चाहिये,’ ‘नहीं, ऐसे नहीं हो चाहिये,’ ‘यह बात ऐसी ही है, ऐसी ही है, इससे भिन्न नहीं है। इस प्रकार कह-कहकर से वितण्डावादी[4] द्विज वहाँ वाद विवाद करते थे। कुछ विद्वान शास्त्र निश्चित नाना प्रकार के तर्कों और युक्तियों से दुर्बल पक्षों को पुष्ट और पुष्ट पक्षों को दुर्बल सिद्ध कर देते थे। वहीं कुछ मेधावी पण्डित, जो दूसरों के कथन में दोष दिखाने के ही अभ्यासी थे, अन्य लोगों के कहे हुए अनुमान साधित विषय को उसी तरह बीच से ही लोक लेते थे, जैसे बाज मांस के लोथड़े को आकाश में ही एक दूसरे से छीन लेते हैं। उन्हीं में कुछ लागे धर्म और अर्थ के निर्णय में अत्यनत निपुण थे। कोई महान व्रत का पालन करने वाले थे। इस प्रकार सम्पूर्ण भाष्य के विद्वानों में श्रेष्ठ वे महात्मा अच्छी कथाएँ और शिक्षाप्रद बातें कहकर स्वयं भी सुखी होते और दूसरों को भी प्रसन्न करते थे। जैसे नक्षत्रमालाओं द्वारा मण्डित विशाल आकाश मण्डल की शोभा होती है, उसी प्रकार वेदज्ञ देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों और महर्षियों से वह वेदी सुशोभित हो रही थी। राजन! युधिष्ठिर की यज्ञशाला के भीतर उस अन्तर्वेदी के आस पास उस समय न तो काई शूद्र था और न व्रतहीन द्विज ही। परम बुद्धिमान राजलक्ष्मी सम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिर के उस धन वैभव और यज्ञविधि को देखकर देवर्षि नारद को बड़ी प्रसन्नता हुई।[1]

नारद जी द्वारा कृष्ण की महिमा का वर्णन

जनमेजय! उस समय वहाँ समस्त क्षत्रियों का सम्मेलन देखकर मुनविर नारदजी सहसा चिन्तित हो उठे। नरश्रेष्ठ! भगवान के सम्पूर्ण अंशों (देवताओं) सहित अवतार लेने के सम्बन्ध में ब्रह्मलोक में पहले जो चर्चा हुई थी, वह प्राचीन घटना उन्हें याद आ गयी। कुरुनन्दन! नारदजी ने यह जानकर कि राजाओं के इस समुदाय के रूप में वास्तव में देवताओं का ही समागम हुआ है, मन ही मन कमलनयन भगवान श्रीहरि का चिन्तन किया। वे सोचने लगे- ‘अहो! सर्वव्यापक देवशत्रु विनाशक वैरिनगर विजयी साक्षात् भगवान नारायण ने ही अपनी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये क्षत्रियकुल में अवतार ग्रहण किया है।[1] ‘पूर्वकाल में सम्पूर्ण भूतों के उत्पादक साक्षात् उन्हीं भगवान ने देवताओं को यह आदेश दिया था कि तुम लोग भूतल पर जनम ग्रहण करके अपना अभीष्ट साधन करते हुए आपस में एक दूसरे को मारकर फिर देवलोक में आ जाओंगे। ‘कलयाणस्वरूप भूतभावन भगवान नारायण ने सब देवताओं को यह आज्ञा देने के पश्चात स्वयं भी यदुकुल में अवतार लिया। ‘अन्धक और वृष्णियों के कुल में वंशधारियों श्रेष्ठ वे ही भगवान इस पृथ्वी पर प्रकट हो अपनी सर्वोत्तम कान्ति से उसी प्रकार शोभायमान हैं, जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा सुशोभित होते हैं। ‘इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता जिनके बाहुबल की उपासना करते हैं, वे ही शत्रुमर्दन श्रीहरि यहाँ मनुष्य के समान बैठे हैं। ‘अहो! ये स्वयम्भू महाविष्णु ऐसे बलसम्पन्न क्षत्रिय समुदाय को पुन: उच्छिन्न करता चाहते हैं’। धर्मज्ञ नारदजी ने इसी पुरातन वृत्तान्त का समरण किया और ये भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त यज्ञों के द्वारा आराधनीय, सर्वेश्वर नारायण हैं, ऐसा समझकर वे धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान देवर्षि मेधावी धर्मराज के उस महायज्ञ में बड़े आदर के साथ बैठे रहे।[5]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-14
  2. जिसमें पूजनीय पुरुषों का अभिषेक- अर्घ्य देकर सम्मान किया जाता है, उस कर्म का नाम अभिषेचनीय है। यह राजसूय का अद्भुत सोमयगविशेष है।
  3. यह एक प्रकार का वाद है, जिसमें वादी छल, जाति और निग्रहस्थान को लेकर अपने पक्ष का मण्डन और विपक्षी के पक्ष का खण्डन करता है, इसमें वादी का उद्देश्य तत्त्वनिर्णय नहीं होता, किंतु स्वपक्षस्थापन और परपक्षखण्डनमात्र होता है। वाद के समान इसमें भी प्रतिज्ञा, हेतु आदि पाँच अवयव होते हैं।
  4. जिस बहस या वाद विवाद का उद्देश्य अपने पक्ष की स्थापना या परपक्ष का खण्डन होकर व्यर्थ की बकवादमात्र हो, उसका नाम ‘वितण्डा’ है।
  5. महाभारत सभा पर्व अध्याय 36 श्लोक 15-32

संबंधित लेख

महाभारत सभा पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सभाक्रिया पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार मयासुर द्वारा सभा भवन निर्माण | श्रीकृष्ण की द्वारका यात्रा | मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना | मय द्वारा निर्मित सभा भवन में युधिष्ठिर का प्रवेश
लोकपाल सभाख्यान पर्व
नारद का युधिष्ठिर को प्रश्न रूप में शिक्षा देना | युधिष्ठिर की दिव्य सभाओं के विषय में जिज्ञासा | इन्द्र सभा का वर्णन | यमराज की सभा का वर्णन | वरुण की सभा का वर्णन | कुबेर की सभा का वर्णन | ब्रह्माजी की सभा का वर्णन | राजा हरिश्चंद्र का माहात्म्य
राजसूयारम्भ पर्व
युधिष्ठिर का राजसूयविषयक संकल्प | श्रीकृष्ण की राजसूय यज्ञ की सम्मति | जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत | जरासंध पर जीत के विषय में युधिष्ठिर का उत्साहहीन होना | श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन की बात का अनुमोदन | युधिष्ठिर को जरासंध की उत्पत्ति का प्रसंग सुनाना | जरा राक्षसी का अपना परिचय देना | चण्डकौशिक द्वारा जरासंध का भविष्य कथन
जरासंध वध पर्व
श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम की मगध यात्रा | श्रीकृष्ण द्वारा मगध की राजधानी की प्रशंसा | श्रीकृष्ण और जरासंध का संवाद | जरासंध की युद्ध के लिए तैयारी | जरासंध का श्रीकृष्ण के साथ वैर का वर्णन | भीम और जरासंध का भीषण युद्ध | भीम द्वारा जरासंध का वध | जरासंध द्वारा बंदी राजाओं की मुक्ति
दिग्विजय पर्व
पाण्डवों की दिग्विजय के लिए यात्रा | अर्जुन द्वारा अनेक राजाओं तथा भगदत्त की पराजय | अर्जुन का अनेक पर्वतीय देशों पर विजय पाना | किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय | भीम का पूर्व दिशा में जीतने के लिए प्रस्थान | भीम का अनेक राजाओं से भारी धन-सम्पति जीतकर इन्द्रप्रस्थ लौटना | सहदेव द्वारा दक्षिण दिशा की विजय | नकुल द्वारा पश्चिम दिशा की विजय
राजसूय पर्व
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेना | राजसूय यज्ञ में राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन | राजसूय यज्ञ का वर्णन
अर्घाभिहरण पर्व
राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम | भीष्म की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा | शिशुपाल के आक्षेपपूर्ण वचन | युधिष्ठिर का शिशुपाल को समझाना | भीष्म का शिशुपाल के आक्षेपों का उत्तर देना | भगवान नारायण की महिमा | भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध | वराह अवतार की संक्षिप्त कथा | नृसिंह अवतार की संक्षिप्त कथा | वामन अवतार की संक्षिप्त कथा | दत्तात्रेय अवतार की संक्षिप्त कथा | परशुराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीराम अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण अवतार की संक्षिप्त कथा | कल्कि अवतार की संक्षिप्त कथा | श्रीकृष्ण का प्राकट्य | कालिय-मर्दन एवं धेनुकासुर वध | अरिष्टासुर एवं कंस वध | श्रीकृष्ण और बलराम का विद्याभ्यास | श्रीकृष्ण का गुरु को दक्षिणा रूप में उनके पुत्र का जीवन देना | नरकासुर का सैनिकों सहित वध | श्रीकृष्ण का सोलह हजार कन्याओं को पत्नीरूप में स्वीकार करना | श्रीकृष्ण का इन्द्रलोक जाकर अदिति को कुण्डल देना | द्वारकापुरी का वर्णन | रुक्मिणी के महल का वर्णन | सत्यभामा सहित अन्य रानियों के महल का वर्णन | श्रीकृष्ण और बलराम का द्वारका में प्रवेश | श्रीकृष्ण द्वारा बाणासुर पर विजय | भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार | सहदेव की राजाओं को चुनौती
शिशुपाल वध पर्व
युधिष्ठिर को भीष्म का सान्त्वना देना | शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा | शिशुपाल की बातों पर भीम का क्रोध | भीष्म द्वारा शिशुपाल के जन्म का वृतांत्त का वर्णन | भीष्म की बातों से चिढ़े शिशुपाल का उन्हें फटकारना | श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल वध | राजसूय यज्ञ की समाप्ति | श्रीकृष्ण का स्वदेशगमन
द्यूत पर्व
व्यासजी की भविष्यवाणी से युधिष्ठिर की चिन्ता | दुर्योधन का मय निर्मित सभा भवन को देखना | युधिष्ठिर के वैभव को देखकर दुर्योधन का चिन्तित होना | पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने के लिए दुर्योधन-शकुनि की बातचीत | दुर्योधन का द्यूत के लिए धृतराष्ट्र से अनुरोध | धृतराष्ट्र का विदुर को इन्द्रप्रस्थ भेजना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को अपने दुख और चिन्ता का कारण बताना | युधिष्ठिर को भेंट में मिली वस्तुओं का दुर्योधन द्वारा वर्णन | दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन | दुर्योधन को धृतराष्ट्र का समझाना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र को उकसाना | द्यूतक्रीडा के लिए सभा का निर्माण | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को बुलाने के लिए विदुर को आज्ञा देना | विदुर और धृतराष्ट्र की बातचीत | विदुर और युधिष्ठिर बातचीत तथा युधिष्ठिर का हस्तिनापुर आना | जुए के अनौचित्य के सम्बन्ध में युधिष्ठिर-शकुनि संवाद | द्यूतक्रीडा का आरम्भ | जुए में शकुनि के छल से युधिष्ठिर की हार | धृतराष्ट्र को विदुर की चेतावनी | विदुर द्वारा जुए का घोर विरोध | दुर्योधन का विदुर को फटकारना और विदुर का उसे चेतावनी देना | युधिष्ठिर का धन, राज्य, भाई, द्रौपदी सहित अपने को भी हारना | विदुर का दुर्योधन को फटकारना | दु:शासन का सभा में द्रौपदी को केश पकड़कर घसीटकर लाना | सभासदों से द्रौपदी का प्रश्न | भीम का क्रोध एवं अर्जुन को उन्हें शान्त करना | विकर्ण की धर्मसंगत बात का कर्ण द्वारा विरोध | द्रौपदी का चीरहरण | विदुर द्वारा प्रह्लाद का उदाहरण देकर सभासदों को विरोध के लिए प्रेरित करना | द्रौपदी का चेतावनी युक्त विलाप एवं भीष्म का वचन | दुर्योधन के छल-कपटयुक्त वचन और भीम का रोषपूर्ण उद्गार | कर्ण और दुर्योधन के वचन एवं भीम की प्रतिज्ञा | द्रौपदी को धृतराष्ट्र से वर प्राप्ति | कौरवों को मारने को उद्यत हुए भीम को युधिष्ठिर का शान्त करना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर को सारा धन लौटाकर इन्द्रप्रस्थ जाने का आदेश
अनुद्यूत पर्व
दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पुन: द्युतक्रीडा के लिए पाण्डवों को बुलाने का अनुरोध | गान्धारी की धृतराष्ट्र को चेतावनी किन्तु धृतराष्ट्र का अस्वीकार करना | धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर का पुन: जुआ खेलना और हारना | दु:शासन द्वारा पाण्डवों का उपहास | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की भीषण प्रतिज्ञा | विदुर का पाण्डवों को धर्मपूर्वक रहने का उपदेश देना | द्रौपदी का कुन्ती से विदा लेना | कुन्ती का विलाप एवं नगर के नर-नारियों का शोकातुर होना | वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टा | प्रजाजनों की शोकातुरता के विषय में धृतराष्ट्र-विदुर का संवाद | शरणागत कौरवों को द्रोणाचार्य का आश्वासन | धृतराष्ट्र की चिन्ता और उनका संजय के साथ वार्तालाप

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः