मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देना

महाभारत सभा पर्व के ‘सभाक्रिया पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 3 के अनुसार मयासुर का भीम-अर्जुन को गदा और शंख देने का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर मयासुर ने विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन से कहा - ‘भारत! मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ। मैं एक जगह जाऊँगा और फिर शीघ्र ही लौट आऊँगा। (‘कुन्तीकुमार धनंजय! मैं आपके लिये तीनों लोकों में विख्यात एक दिव्य सभा का निर्माण करूँगा। जो समस्त प्राणियों को आश्चर्य में डालने वाली तथा आपके साथ ही समस्त पाण्डवों की प्रसन्नता बढ़ाने वाली होगी।) ‘पूर्वकाल में जब दैत्य लोग कैलास पर्वत से उत्तर दिशा में स्थित मैनाक पर्वत पर यज्ञ करना चाहते थे, उस समय मैंने एक विचित्र एवं रमणीय मणिमय भाण्ड तैयार किया था, जो बिन्दुसर के समीप सत्यप्रतिज्ञ राजा वृषपर्वा की सभा में रखा गया था। ‘भारत! यदि वह अब तक वहीं होगा तो उसे लेकर पुनः लौट आऊँगा। फिर उसी से पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के यश को बढ़ाने वाली सभा तैयार करूँगा। जो सब प्रकार के रत्नों से विभूषित, विचि एवं मन को आह्लाद प्रदान करने वाली होगी। कुरुनन्दन! बिन्दुसर में एक भयंकर गदा भी है। ‘मैं समझता हूँ, राजा वृषपर्वा ने युद्ध में शत्रुओं का संहार करके वह गदा वहीं रख दी थी। वह गदा बड़ी भारी है, विशेष भार या आघात सहन करने में समर्थ एवं सुदृढ़ है। उसमें सोने की फूलियाँ लगी हुई है, जिनसे वह बड़ी विचित्र दिखायी देती है। ‘शत्रुओं का संहार करने वाली वह गदा अकेली ही एक लाख गदाओं के बराबर है। जैसे गाण्डीव धनुष आपके योग्य है, वैसे ही वह गदा भीमसेन के योग्य होगी। ‘वहाँ वरुण देव का देवदत्त नामक महान शंख भी है, जो बड़ी भारी आवाज करने वाला है। ये सब वस्तुएँ लाकर मैं आपको भेंट करूँगा, इसमें संशय नहीं है’।

अर्जुन से ऐसा कहकर मयासुर पूर्वोत्तर दिशा[2] में कैलास से उत्तर मैनाक पर्वत के पास गया। ‘वहीं हिरण्यश्रृंग नाम महामणिमय विशाल पर्वत है, जहाँ रमणीय बिन्दुसर नामक तीर्थ है। वहीं राजा भगीरथ ने भागीरथी गंगा का दर्शन करने के लिये बहुत वर्षों तक[3] निवास किया था। भरतश्रेष्ठ! वहीं सम्पूर्ण भूतों के स्वामी महात्मा प्रतापति ने मुख्य-मुख्य सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया था, जिनमें सोने की वेदियाँ और मणियों के खंभे बने थे। यह सब शोभा के लिये बनाया गया था, शास्त्रीय विधि अथवा सिद्धान्त के अनुसार नहीं। सहस्र नेत्रों वाले शचीपति इन्द्र ने भी वहीं यज्ञ करके सिद्धि प्राप्त की थी। सम्पूर्ण लोकों के स्रष्टा और समस्त प्राणियों के अधिपति उग्र तेजस्वी सनातन देवता महादेव जी वहीं रहकर सहस्रों भूतों से सेवित होते हैं। एक हजार युग बीतने पर वहीं नर-नारायण ऋषि, ब्रह्मा, यमराज और पाँचवें महादेव जी यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान वासुदेव ने धर्म परम्परा की रक्षा के लिये बहुत वर्षों तक निरंतर श्रद्धापूर्वक यज्ञ किया था। उस यज्ञ में स्वर्णमालाओं से मण्डित खंभे और अत्यन्त चमकीली वेदियाँ बनी थी। भगवान केशव ने उस यज्ञ में सहस्रों-लाखों वस्तुएँ दान में दी थीं। भारत! तदनन्तर मयासुर ने वहाँ जाकर वह गदा, शंख और सभा बनाने के लिये स्फटिक मणिमय द्रव्य ले लिया, जो पहले वृषपर्वा के अधिकार में था।[1] बहुत से किंकर तथा राक्षस जिस महान धन की रक्षा करते थे, वहाँ जाकर महान असुर मय ने वह सब ले लिया। ये सब वस्तुएँ लाकर उस असुर ने वह अनुपम सभा तैयार की, जो तीनों लोकों में विख्यात, दिव्य, मणिमयी और शुभ एवं सुन्दर थी। उसने उस समय वह श्रेष्ठ गदा भीमसेन को और देवदत्त नाम उत्तम शंख अर्जुन को भेंट कर दिया। उस शंख की आवाज सुनकर समस्त प्राणी काँप उठते थे। महाराज! उस सभा में सुवर्णमय वृक्ष शोभा पाते थे। वह सब ओर से दस हजार हाथ विस्तृत थी[4]। जैसे अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा की सभा प्रकाशित होती है, उसी प्रकार अत्यन्त उद्भासित होने वाली उस सभा ने बड़ा मनोहर रूप धारण किया। वह अपनी प्रभा द्वारा सूर्यदेव की तेजमयी प्रभा से टक्कर लेती थी। वह दिव्य सभा अपने अलौकिक तेज से निरंतर प्रदीप्त सी जान पड़ती थी। उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि नूतन मेघों की घटा के समान वह आकाश को घेरकर खड़ी थी। उसका विस्तार भी बहुत था। वह रमणीय सभा पाप-ताप का नाश करने वाली थी। उत्तमोत्तम द्रव्यों से उसका निर्माण किया गया था। उसके परकोटे और फाटक रत्नों से बने हुए थे। उसमें अनेक प्रकार के अद्भुत चित्र अंकित थे। वह बहुत धन से पूर्ण थी। दानवों के विश्वकर्मा मयासुर ने उस सभा को बहुत सुन्दरता से बनाया था। बुद्धिमान मय ने जिस सभा का निर्माण किया था, उसके समान सुन्दर यादवों की सुधर्मा सभा अथवा ब्रह्माजी की सभा भी नहीं थी।

मयासुर की आज्ञा के अनुसार आठ हजार किंकर नामक राक्षस उस सभा की रक्षा करते और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर ले जाते थे। वे राक्षस भयंकर आकृति वाले, आकाश में विचरने वाले, विशालकाय और महाबली थे। उनकी आँखे लाल और पिंगल वर्ण की थीं तथा कान सीपी के समान जान पड़ते थे। वे सब के सब प्रहार करने में कुशल थे। मयासुर ने उस सभाभवन के भीतर एक बड़ी सुन्दर पुष्करिणी बना रखी थी, जिसकी कहीं तुलना नहीं थी। उसमें इन्द्रनीलमणिमय कमल के पत्ते फैले हुए थे। उन कमलों के मृणाल मणियों के बने थे। उसमें पद्मरागमणिमय कमलों की मनोहर सुगंध छा रही थी। अनेक प्रकार के पक्षी उसमें रहते थे। खिले हुए कमलों और सुनहली मछलियों तथा कछुओं से उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस पोखरी में उतरने के लिये स्फटिक मणि की विचित्र सीढ़ियाँ बनी थीं। उसमें पंकरहित स्वच्छ जल भरा हुआ था। वह देखने में बड़ी सुन्दर थी। मन्द वायु से उद्वेलित हो जब जल की बूँदें उछलकर कमल के पत्तों पर बिखर जाती थीं, उस समय वह सारी पुष्करिणी मौक्तिक बिन्दुओं से व्याप्त जान पड़ती थी। उसके चारों ओर के घाटों पर बड़ी-बड़ी मणियों की चौकोर शिलाखण्डों से पक्की वेदियाँ बनायी गयी थीं। मणियों तथा रत्नों से व्याप्त होने के कारण कुछ राजा लोग उस पुष्करिणी के पास आकर और उसे देखकर भी उसकी यथार्थता पर विश्वास नहीं करते थे और भ्रम से उसे स्थल समझकर उसमें गिर पड़ते थे। उस सभा भवन के सब ओर अनेक प्रकार के बड़े-बड़े़ वृक्ष लहलहा रहे थे, जो सदा फूलों से भरे रहते थे। उनकी छाया बड़ी शीतल थी। वे मनोरम वृक्ष सदा हवा के झोंको से हिलते रहते थे। केवल वृक्ष ही नहीं; उस भवन के चारों ओर अनेक सुगन्धित वन, उपवन और बावलियाँ भी थी, जो हंस, कारण्डव तथा चक्रवाक आदि पक्षियों से युक्त होने के कारण बड़ी शोभा पा रही थीं। वहाँ जल और स्थल में होने वाले कमलों की सुगन्ध लेकर वायु सदा पाण्डवों की सेवा किया करती थी। मयासुर ने पूरे चौदह महीनों में इस प्रकार की इस अद्भुत सभा का निर्माण किया था। राजन्! जब वह बनकर तैयार हो गयी, तब उसने धर्मराज को इस बात की सूचना दी।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-19
  2. ईशानकोण
  3. तपस्या करते हुए
  4. अर्थात उसकी लंबाई और चैड़ाई भी दस-दस हजार हाथ थी
  5. महाभारत सभा पर्व अध्याय 3 श्लोक 19-37

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