किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय

महाभारत सभा पर्व के ‘दिग्विजय पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 28 के अनुसार किम्पुरुष, हाटक, उत्तरकुरु पर अर्जुन की विजय का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर पराक्रमी वीर पाण्डव श्रेष्ठ अर्जुन धवलगिरि को लाँघकर द्रुमपुत्र के द्वारा सुरक्षित किम्पुरुष देश में गये, जहाँ किन्नरों का निवास था। वहाँ क्षत्रियों का विनाश करने वाले भारी संग्राम के द्वारा उन्होंने उस देश को जीत लिया और कर देते रहने की शर्त पर उस राजा को पुन: उसी राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। किन्नर देश को जीतकर शान्तचित्त इन्द्रकुमार ने सेना के साथ गुह्मकों द्वारा सुरक्षित हाटक देश पर हमला किया। और उन गुह्यकों को सामनीति से समझा बुझाकर ही वश में कर लेने के पश्चात् वे परम उत्तम मानसरोवर पर गये। वहाँ कुरुनन्दन अर्जुन ने समस्त ऋषि कुल्याओं (ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध जल स्त्रोतों) का दर्शन किया। मानसरोवर पर पहुँचकर शक्तिशाली पाण्डु कुमार ने हाटक देश के निकटवर्ती गन्धर्वों द्वारा सुरक्षित प्रदेश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया। वहाँ गन्धर्व नगर से उन्होंने उस समय करके रूप में तित्तिरि, कल्माष और मण्डूक नाम वाले बहुत से उत्तम घोड़े प्राप्त किये। तत्पश्चात् अर्जुन ने हेमकूट पर्वत पर जाकर पड़ाव डाला। राजेन्द्र! फिर हेमकूट कों भी लाँघकर वे पाण्डुनन्दन पार्थ अपनी विशाल सेना के साथ हरविर्ष में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने बहुत से मनोरम नगर, सुन्दर वन तथा निर्मल जल से भरी हुई नदियाँ देखी। वहाँ के पुरुष देवताओं के समान तेजस्वी थे। स्त्रियाँ भी परम सुन्दरी थीं। उन सबका अवलोकन करके अर्जुन को वहाँ बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने हरिवर्ष को अपने अधीन कर लिया और वहाँ से बहुतेरे रत्न प्राप्त किये। इसके बाद निषध पर्वत पर जाकर शक्तिशाली अर्जुन ने वहाँ के निवासियों को पराजित किया। तदनन्तर विशल निषध पर्वत को लाँघकर वे दिव्य इलावृत वर्ष में पहँचे, जो जम्बूद्वीप का मध्यवर्ती भू भाग है। वहाँ अर्जुन ने देवताओं जैसे दिखायी देने वाले देवोपम शक्तिशाली दिव्य पुरुष देखे। वे सब के सब अत्यन्त सौभाग्शाली और अद्भुत थे। उससे पहले अर्जुन ने कभी वैसे दिव्य पुरुष नही देखे थे। वहाँ के भवन अत्यन्त उज्ज्वल और भवय थे तथा नारियाँ अप्सराओं के समान प्रतीत होती थीं।

अर्जुन ने वहाँ के रमणीय स्त्री पुरुषों को देखा। इन पर भी वहाँ के लोगों की दृष्टि पड़ी। तत्पश्चात् उसे देश के निवासियों को अर्जुन ने युद्ध में जीत लिया, जीतकर उन पर कर लगाया और फिर उन्हीं बड़भागियों को वहाँ के राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। फिर वस्त्रों और आभूषणों के साथ दिव्य रत्नों की भेंट लेकर अर्जुन बड़ी प्रसन्नता के साथ वहाँ से उत्तर दिशा की ओर बढ़ गये। आगे जाकर उन्हें पर्वतों के स्वामी गिरिप्रवर महामेरु का दर्शन हुआ, जो दिव्य तथा सुवर्णमय है। उसमें चार प्रकार के रंग दिखायी पड़ते है। उसकी लम्बाई एक लाख योजन है। वह परम उत्तम मेरुपर्वत महान तेज के पुंज सा जगमगाता रहता है और अपने सुवर्णमय कान्तिमान शिखरों द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करता है। वह सुवर्णभूषित दिव्य पर्वत देवताओं तथा गन्धर्वों से सेवित है। सिद्ध और चारण भी वहाँ नित्य निवास करते हैं। उस पर्वत पर सदा फल और फूलों की बहुतायत रहती है। उसकी ऊँचाई का कोई माप नहीं है। अधर्मपरायण मनुष्य उस पर्वत का स्पर्श नहीं कर सकते। बड़े भयंकर सर्प वहाँ विचरण करते हैं। दिव्य ओषधियाँ उस पर्वत को प्रकाशित करती रहती हैं। महागिरि मेरु ऊँचाई द्वारा स्वर्ग लोक को भी घेरकर खड़ा है।[1] दूसरे मनुश्च मन से भी वहाँ नहीं पहुँच सकते। कितनी ही नदियाँ और वृक्ष उस शैल शिखर की शोभा बढ़ाते हैं। भाँति-भाँति के मनोहर पक्षी वहाँ कलख करते रहते हैं। ऐसे मनोहर मेरु गिरि को रेखकर उस समय अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। मेरु के चारों ओर मण्डलाकार इलावृतवर्ष बसा हुआ है। मेरे के दक्षिण पार्श्व में जम्बू नाम का एक वृक्ष है, जो सदा फल और फूलों से भरा रहता है। सिद्ध और चारण उव वृक्ष का सेवन करते हैं। राजन! उक्त जम्बूवृक्ष की शाखा ऊँचाई में स्वर्ग लोक तक फैली हुई है। उसी के नाम पर इस द्वीप को जम्बूद्वीप कहते हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन ने उस जम्बू वृक्ष को देखा। जम्बू और मेरुगिरि दोनों ही इस जगत में अनुपम हैं। उन्हें देखकर अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन! वहाँ सब ओर दृष्टिपात करते हुए अर्जुन सिद्धों और दिव्य चारणों से कई सहस्र रत्न, वस्त्र, आभूषण तथा अन्य बहत सी बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त कीं। तदनन्तर उन सबसे विदा ले बड़े भाई के यज्ञ के उद्देश्य से बहुत से रत्नों का संग्रह करके वे वहाँ से जाने को उद्यत हुए। पर्वतश्रेष्ठ मेरु को अपने दाहिने करके अर्जुन जम्बूनदी के तट पर गये। वे उस श्रेष्ठ सरिता की शोभा देखना चाहते थे। वह मनोरम दिव्य नदी जल के रूप में जम्बूवृक्ष के फलों का स्वादिष्ट रस बहाती थी। सुनहरे पंखों वाले पक्षी उसका सेवन करते थे। वह नदी सुवर्णमय कमलों से भरी हुई थी। उनकी कीचड़ भी स्वर्णमय थी। उसके जल से भी सुवर्णमयी आभा छिटक रही थी। उस मंगलमयी नदी की बालु का भी सुवर्ण के चूर्ण सी शेभा पाती थी। कहीं-कहीं सुवर्णमय कमलों तथा स्वर्णमय पुष्पों से वह व्याप्त थी। कहीं सुन्दर खिले हुए सवुर्णमय कुमुद और उत्पल छाये हुए थे। कहीं उसे नदी के तट पर सुन्दर फूलों से भरे हुए स्वर्णमय वृक्ष सब ओर फैले हुए थे। उस सुन्दर सरिता के घाटों पर सब और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। निर्मल मणियों के समूह उसकी शोभा बढ़ाते थे। नृत्ये और गीत के मधुर शब्द उस प्रदेश को मुखरित कर रहे थे। उसके दोनों तटों पर सुनहरे और चमकीले चँदोवे तने थे, जिनके कारण जम्बूनदी की बड़ी शोभा हो रही थी।[2]

अर्जुन का इन्द्रप्रस्थ लौटना

राजेन्द्र! ऐसी अदृष्टपूर्व नदी का दर्शन करके अर्जुन ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और वे मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। उस नदी के तट पर बहुत से देवोपम अपनी स्त्रियों के साथ विचर रहे थे। उनके सौन्दर्य देखने ही योग्य था। वे सबके मन को मोह लेते थे। जम्बूनदी का जल ही उनका आहार था। वे सदा सुख और आनन्द में निमग्र हरने वाले तथा सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित थे। उस समय अर्जुन ने उनसे भी नाना प्रकार के रत्न प्राप्त किये। दिव्य जाम्बूनदी नामक सुवर्ण और भाँति-भाँति के आभूषण आदि दुर्लभ वस्तुएँ पाकर अर्जुन वहाँ से पश्चिम दिशा की ओर चल दिये। उधर जाकर अर्जुन ने नागों द्वारा सुरक्षित प्रदेश पर विजय पायी। महाराज! वहाँ से और पश्चिम जाकर शक्तिशाली अर्जुन गन्धमादन पर्वत पर पहुँच गये और वहाँ के रहने वालों को जीतकर अपने अधीन बना लिया। राजन! इस प्रकार गन्धमादन पर्वत को लाँधकर अर्जुन रत्नों से सम्मन्न केतुमालवर्ष में गये, जो देवोपम पुरषों और सुन्दरी स्त्रियों की निवास भूमि है। राजन! उस वर्ष को जीतकर अर्जुन ने उसे कर देने वाला बना दिया और वहाँ से दुर्लभ रत्न लेकर वे पुन: मध्यवर्ती इलावृतवर्ष में लौट आये। तदनन्तन शत्रुदमन सव्यसाची अर्जुन ने पूर्व दिशा में प्रस्थान किया। मेरु और मन्दराचल के बीच शैलोदा नदी के दोनों तटों पर जो लोग कीचक और वेणु नामक बाँसों की रमणीय छाया का आश्रय लेकर रहते हैं, उन खश, झष, नद्योत, प्रघस, दीर्घवेणिक, पशुष, कुलिन्द, तंगण तथा परतंगण आदि जातियों को हराकर उन सबसे रत्नों की भेंट ले अर्जुन माल्यवान पर्वत पर गये। तत्पश्चात् गिरिराज माल्यवान को भी लाँखकर उन पाण्डुकुमार ने भद्राश्ववर्ष में प्रवेश किया जो स्वर्ग के समान सुन्दर है। उस देश में देवताओं के समान सुन्दर और सुखी पुरुष निवास करते थे। अर्जुन ने उन सबको जीतकर अपने अधीन कर लिया और उन पर कल लगा दिया। इस प्रकार इधर-उधर से असंख्य रत्नों का संग्रह करके शक्तिशली अर्जुन ने नीलगिरी की यात्रा की और वहाँ के निवासियों को पराजित किया। तदनन्तर विशाल नीलगिरि को भी लाँघकर सुन्दर नरनारियों से भरे हुए रम्यक वर्ष में उन्होंने प्रवेश किया। उस देश को भी जीतकर अर्जुन ने वहाँ के निवासियों पर कर लगा दिया।[3] तत्पश्चात् गुह्यको द्वारा सुरक्षित प्रदेश को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। राजेन्द्र! वहाँ उन्हें सोने के मृग और पक्षी उपलब्ध हुए, जो देखने में बड़े ही रमणीय और मनोरम थे। उन्होंने यज्ञ वैभव की समृद्धि के लिये उन मृगों और पक्षियों को ग्रहण कर लिया। तदनन्तर महाबली पाण्डुनन्दन अन्य बहुत से रत्न लेकर गन्धवों द्वारा सुरक्षित प्रदेश में गये और गन्धर्वगणों सहित उस देश पर अधिकार जमा लिया। राजन! वहाँ भी अर्जुन को बहुत से दिव्य रत्न प्राप्त हुए। तदनन्तर उन्होंने श्वेत पर्वत पर जाकर वहाँ के निवासियों को जीता। फिर उस पर्वत को लाँघकर पाण्डुकुमार अर्जुन ने हिरण्यक वर्ष में प्रवेश किया। महाराज! वहाँ पहुँचकर वे उस देश के रमणीय प्रदेशों में विचरने लगे। बड़े-बड़े महलों की पड्क्तियों में भ्रमण करते हुए श्वेताश्व अर्जुन नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा के समान सुशोभित होते थे। राजेन्द्र! जब अर्जुन उत्तम बल और शोभा से सम्पन्न हो हिरण्यकवर्ष की विशाल सड़कों पर चलते थे, उस समय प्रासादशिखरों पर खड़ी हुई वहाँ की सुन्दरी स्त्रियाँ उनका दर्शन करती थीं।

कुन्तीनन्दन अर्जुन अपने यश को बढ़ाने वाले थे। उन्होंने आभूषण धारण कर रखा था। वे शूरवीर, रथ युक्त, सेवकों से सम्पन्न और शक्तिशाली थे। उनके अंगों में कवच और मस्तक पर सुन्दर किरीट शोभा दे रहा था। वे कमर कसकर युद्ध के लिये तैयार थे और सब प्रकार की आवश्यक सामग्री उनके साथ थी। वे सुकुमार, अत्यन्त धैर्यवान, तेज के पुंज, परम उत्तम, इन्द्र तुल्य पराक्रमी, शत्रुहन्ता तथा शत्रुओं के गजराजों की गति को रोक देने वाले थे। उन्हें देखकर वहाँ की स्त्रियों ने यही अनुमान लगाया कि इस वीर पुरुष के रूप में साक्षात शक्तिधारी कार्तिकेय पधारे हैं। वे आप में इस प्रकार बातें करने लगीं- ‘सखियो! ये जो पुरुषसिंह दिखायी दे रहे हैं, संग्राम में इनका पराक्रम अद्भुत है। इनके बाहुबल का आक्रमण होने पर शत्रुओं के समुदाय अपना अस्तित्व खो बैठते हैं।’ इस प्रकार की बातें करती हुई स्त्रियाँ बड़े प्रेम से अर्जुन की ओर देखकर उनके गुण गांती और उनके मस्तक पर फूलों की वर्षा करती थीं।

वहाँ के सभी निवासी बड़ी प्रसन्नता के साथ कौतूहलवश उन्हें देखते और उनके निकट रत्नों तथा आभूषणों की वर्षा करते थे। उन सबको जीतकर तथा उनके ऊपर कर लगाकर वहाँ से मणि, सुवर्ण, मूँगे, रत्न तथा आभूषण ले अर्जुन श्रृंगवान पर्वत पर चले गये।[4] वहाँ से आगे बढ़कर पाकशासन पुत्र पाण्डव अर्जुन ने उत्तर कुरुवर्ष में पहुँचकर उस देश को जीतने का विचार किया। इतने ही में महापराक्रमी अर्जुन के पास बहुत से विशालकाय महाबली द्वारपाल आ पहुँचे और प्रसन्नतापूर्वक बोले - ‘पार्थ! इस नगर को तुम किसी तरह जीत नहीं सकते। कलयाण स्वरूप अर्जुन! यहाँ से लौट जाओ। अच्युत! तुम यहाँ तक आ गये, यही बहुत हुआ। जो मनुष्य इस नगर में प्रवेश करता है, निश्चय ही उसकी मृत्यु हो जाती है। वीर! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। यहाँ तक आ पहुँचना ही तुम्हारी बहुत बड़ी विजय है। ‘अर्जुन! यहाँ कोई जीतने यौग्य वस्तु नहीं दिखायी देती। यह उत्तर कुरुदेश है। यहाँ युद्ध नहीं होता है। कुन्तीकुमार! इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ देख नहीं सकोगे, क्योंकि मानव शरीर से यहाँ की कोई वस्तु देखी नहीं जा सकती। ‘भरत कुलभूषण! यदि यहाँ तुम युद्ध के सिवा और कोई काम करना चाहते हो तो बताओ, तुम्हारे कहने से हम स्वयं ही उस कार्य को पूर्ण कर देंगे।’ राजन! तब अर्जुन ने उनसे हँसते हुए कहा - ‘मैं अपने भाई बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को समस्त भूमण्डल का एक मात्र चक्रवर्मी सम्राट बनाना चाहता हूँ। ‘आप लोगों का देश यदि मनुष्यों के विपरीत पड़ता है तो मैं इसमें प्रवेश नहीं करूँगा। महाराज युधिष्ठिर के लिये कर के रूप में कुछ धन दीजिये।’ तब उन द्वारपालों ने अर्जुन को कर के रूप में बहुत से दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य रेशमी वस्त्र एवं मृगचर्म दिये। इस प्रकार पुरुषसिंह अर्जुन ने क्षत्रिय राजाओं तथा लुटेरों के साथ बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ीं और उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की। राजाओं को जीतकर उनसे कर लेते और उन्हें फिर अपने राज्य पर ही स्थापित कर देते थे। राजन! वे वीर अर्जुन सबसे धन और भाँति-भाँति के रत्न लेकर तथा भेंट में मिले हुए वायु के समान वगे वाले तित्तिरि[5], कल्माष, सुग्गापंखी एवं मोर सद्दश सभी घोड़ों को साथ लिये और विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए फिर अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ में लौट आये? पार्थ ने घोडों सहित वह सारा धन धर्मराज को सौंप दिया और उनकी आज्ञा लेकर, वे महल में चले गये।[6]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 1
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 2
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 3
  4. महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 4
  5. तीतर के समान चितकबरे रंग वाले।
  6. महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 5

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