भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण माहात्म्य का उपसंहार का वर्णन इस प्रकार है[1]-

भीष्म का युधिष्ठिर को कृष्ण के महान कार्यो के बारे में बताना

भरतश्रेष्ठ! भगवान श्रीकृष्ण ने मुरदैत्य के पाश काट दिये, निशुम्भ और नरकासुर को मार डाला और प्रागज्योतिषपुर का मार्ग सब लोगों के लिये निष्कण्टक बना दिया। इन्होंने अपने धनुष की टंकार और पांचजन्य शंख के हुंकार से समस्त भूपालों को आतंकित कर दिया है। भरत कुलभूषण! भगवान केशव ने उस रुक्मी को भी भयभत कर दिया, जिसके पास मेघों की घटा के समान असंख्य सेनाएँ हैं और जो दाक्षिणात्य सेवकों से सदा सुरक्षित रहता है। इन चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने रुक्मी को हराकर सूर्य के समान तेजस्वी तथा मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले रथ के द्वारा भोजकुलोत्पन्न रुक्मिणी का अपहरण किया, जो इस समय इन की महारानी के पद पर प्रतिष्ठित है। ये जारूथी नगरी में वहाँ के राजा आहुति को तथा क्राथ एवं शिशुपाल को भी परास्त कर चुके हैं। इन्होंने शैब्य, दन्तवक्र तथा शतधन्वा नामक क्षत्रियों को भी हराया है। इन्होंने इन्द्रद्युम्न, कालयवन और कशेरुमान का भी क्रोधपूर्वक वध किया है। कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने चक्र द्वारा सहस्रों पर्वतों को विदीर्ण करके द्युमत्सेन के साथ युद्ध किया। भरतश्रेष्ठ! जो बल में अग्नि और सूर्य के समान थे और वरुण देवता के उभय पार्श्व में विचरण करते तथा जिनमें पलक मारते-मारे एक स्थान से दूसरे स्थान में पहँच जाने की शक्ति थी, वे गोपति और ताल केतु भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा महेन्द्र पर्वत शिखर पर इरावती नदी के किनारे पकड़ और मारे गये। अक्षप्रपतन के अन्तर्गत नेमिहंस पथ नामक स्थान में, जो उनके अपने ही राज्यों में पड़ता था, उन दोनों को भगवान श्रीकृष्ण ने मारा था। बहुतेरे असुरों से घिरे हुए पुरश्रेष्ठ प्राग्ज्योतिष में पहुँचकर वहाँ की पर्वतमाला के लाल शिखरों पर जाकर श्रीकृष्ण ने उन लोकपाल वरुण देवता पर विजय पायी, जो दूसरों के लिये दुर्धर्ष, अजेय एवं अत्यन्त तेजस्वी हैं। पार्थ! यद्यपि इन्द्र पारिजात के लिये द्वीप (रक्षक) बने हुए थे, स्वयं ही उसकी रक्षा करते थे, तथापि महाबली केशव ने उस वृक्ष का अपहरण कर लिया। लक्ष्मीपति जनार्दन ने पाण्ड्य, पौण्ड, मत्स्य, कलिंग और अंग आदि देशों के समस्त राजाओं का एक साथ पराजित किया। यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने केवल एक रथ पर चढ़कर अपने विरोध में खड़े हुए सौ क्षत्रिय नरेशों को मौत के घाट उतारकर गान्धारराज कुमारी शिंशुमा को अपनी महारानी बनया। युधिष्ठिर! च्रक और गदा धारण करने वाले इन भगवान ने बभ्रु का प्रिय करने की इच्छा से वेणुदारि के द्वारा अपह्यत की हुई उनकी भार्या का उद्धार किया था। इतना ही नहीं, मधुसूदन ने वेणुदारि के वंश में पड़ी हुई घोड़ों, हाथियों एवं रथों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी को भी जीत लिया।[1]
भारत! जिस बाणासुर ने तपस्या द्वारा बल, वीर्य और ओज पाकर समस्त देवेश्वरों को उनके गणों सहित भयभीत कर दिया था, इन्द्र आदि देवताओं के द्वारा बारंबर वज्र, अशनि, गदा और पाशें का प्रहार करके त्रास दिये जाने पर भी समरांगण में जिसकी मृत्यु न हो सकी, उसी दैत्यराज बाणासुर को महामना भगवान गोविन्द ने उसकी सहस्र भुजाएँ काटकर पराजित एवं क्षत विक्षत कर दिया। मधु दैत्य का विनाश करने वाले इन महाबाहु जनार्दन ने पीठ, कंस, पैठक और अतिलोमा नामक असुरों को भी मार दिया। भरतश्रेष्ठ! इन महायशस्वी श्रीकृष्ण ने जम्भ, ऐरावत, विरूप और शत्रुमर्दन शम्बरासुर को (अपनी विभूतियों द्वार) मरवा डाला। भरत कुलभूषण! इन कमल नयन श्रीहरि ने भोगवतीपुरी में जाकर वासु के नाग को हराकर राहिणीनन्दन[2] को बन्धन से छुड़ाया। इस प्रकार संकर्षण सहित कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही बहुत से अद्भुत कर्म किये थे। ये ही देवताओं और असुरों को सर्वथा अभय तथा भय देने वाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण दुष्टों का दमन करने वाले ये महाबाहु भगवान श्रीहरि अनन्त देवकार्य सिद्ध करके अपने परमधाम को पधारेंगे। ये महायशस्वी श्रीकृष्ण मुनिजन वान्छित एवं भोगों से सम्पन्न रमणीय द्वारकापुरी को आत्मसात् करके समुद्र में विलीन कर देंगे। ये चैत्य और यूपों से सम्पन्न, रमपुण्यवती, रमणीय एवं मंगलमयी द्वारका को वन उपवनों सहित वरुणालय में डुबा देंगे। सूर्यलोक के समान कान्तिमती एवं मनोरम द्वारकापुरी को जब शांर्गधन्वा वासुदेव त्याग देंगे, उस समय समुद्र इसे अपने भीतर ले लेगा। भगवान मधुसूदन के सिवा देवताओं, असुरों और मनुष्यों में ऐसा कोई राजा न हुआ और न होगा ही, जो द्वारकापुरी में रहने का संकल्प भी कर सके। उस समय वृष्णि और अन्धकवंश के महारथी एवं उनके कान्तिमान् शिशु भी प्राण त्यागकर भगवत्सेवित परमधाम को प्राप्त करेंगे। इस प्रकार के दशार्हवंशियों के सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न करेंगे। ये स्वयं ही विष्णु, नारायण, सोम, सूर्य और सविता हैं। ये अप्रमेय हैं। इन पर किसी का नियंत्रण नही चल सकता। ये इच्छानुसार चलने वाले और सबको अपने वंश में रखने वाले हैं। जैसे बालक खिलौने से खेलता है, उसी प्रकार ये भगवान सम्पूर्ण प्राणियों के साथ आनन्दमयी क्रीड़ा करते हैं। ये प्रभु ना तो किसी के गर्भ में आते हैं और न किसी योनिविशेष में इनका आवास हुआ है अर्थात ये अपने आप ही प्रकट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण अपने ही तेज से सब की सदगति करते हैं। जैसे बूंद बूंद पानी से उठकर फिर उसी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार समस्त चराचर भूत सदा भगवान नारायण से प्रकट होकर उन्हीं में विलीन हो जाते हैं। भारत! इन महाबाहु केशव की कोई इतिश्री नहीं बतायी जा सकती। इन विश्वरूप परमेश्वर से भिन्न पर और अपर कुछ भी नहीं है। यह शिशुपाल मूढ़बुद्धि पुरुष है, यह भगवान श्रीकृष्ण को सर्वत्र व्यापक तथा सर्वदा स्थिर नहीं जानता है, इसीसलिए उनके सम्बन्ध में ऐसी बातें कहता है। जो बुद्धिमान मनुष्य उत्तम धर्म की खोज करता है, वह धर्म के स्वरूप को जैसा समझता है, वैसा यह चेदिराज शिशुपाल नही समझता। अथवा वृद्धों और बालकों सहित यहाँ बैठे हुए समस्त महात्मा राजाओं में ऐसा कौन है, जो श्रीकृष्ण को पूज्य न मानता हो या कौन है, जो इनकी पूजा न करता हो? यदि शिशुपाल इस पूजा को अनुचित मानता है, तो अब उस अनुचित पूजा के विषय में उसे जो उचित जान पड़े, वैसा करे।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 38
  2. रोहिणी के गद और सारण आदि कई पुत्र थे।
  3. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 39

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