भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ वध

महाभारत सभा पर्व के ‘अर्घाभिहरण पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 38 के अनुसार भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ के वध का वर्णन इस प्रकार है[1]-

मधु-कैटभ की उत्पत्ति

देवाधिदेव जगदीश्वर महायशस्वी भगवान श्रीहरि सहस्र युगों तक शयन करने के पश्चात कल्पान्त की सहस्र युगात्मक अविध पूरी होने पर प्रकट होते और सृष्टि कार्य में संलग्न हो र मेष्ठों ब्रह्मा, कपिल, देवगणों, सप्तर्षियों तथा शंकर की उत्पत्ति करते हैं। इसी प्रकार भगवान श्रीहरि सनत्कुमार, मनु एवं प्रजापति को भी उत्पन्न करते हैं। पूर्वकाल में प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी नारायण देवने ही देवताओं आदि की सृष्टि की है। पहले की बात है, प्रलय काल में समस्त चराचर प्राणी, देवता, असुर, मनुष्य, नाग तथा राक्षस सभी नष्ठ हो चुके थे। उस समय एकार्णव (महासागर) की जलराशि में दो अत्यन्त दुर्धर्ष दैत्य रहते थे, जिनके नाम थे मधु और कैटभ। वे दोनों भाई युद्ध की इच्छा रखत थे। उन्हीं भगवान नारायण ने उन्हें मनोवान्छित वर देकर उन दोनों दैत्यों का वध किया था। कहते हैं, वे दोनों महान् असुर महात्मा भगवान विष्णु के कानों की मैल से उत्पन्न हुए थे। पहले भगवान ने इस पृथ्वी को आवद्ध करके मिट्टी से ही उनकी आकृति बनायी थी। वे पर्वतराज हिमालय के समान विशाल शरीर लिये महासागर के जल में सो रहे थे। उस समय ब्रह्माजी की प्रेरणा से स्वयं वायुदेव ने उनके भीतर प्रवेश किया। फिर तो वे दोनों महान असुर सम्पूर्ण द्युलोक को आच्छादित करके बढ़ने लगे। वायुदवे ही जिनके प्राण थेे, उन दोनों असुरों को देखकर ब्रह्माजी ने धरी-धरीे उनके शरीर पर हाथ फेरा। एक का शरीर उन्हें अत्यन्त कोमल प्रतीत हुआ और दूसरे का अत्यन्त कठोर। तबजल से उत्पन्न होने वाले भगवान ब्रह्मा ने उन दोनों का नामकरण किया। यज जो मृदुल शरीर वाला असुर है, इसका नाम मधु होगा और जिसका शरीर कठारे है, वह कैटभ कहलायेगा।[1]

मधु कैटभ का भगवान नारायण से युद्ध

इस प्रकार नाम निश्चित हो जाने पर वे दोनों दैत्य बल से उन्मत्त होकर सब ओर विचरने लगे। राजन्! सबसे पहले वे दानों महादैत्य मधु और कैटभ द्युलोक में पहुँचे और उस सारे लोक को आच्छादित करके सब और विचरने लगे। उस समय सारा लोक जलमय हो गया था। उसमें युद्ध की कामना से अत्यन्त निर्भय होकर आये हुए उन दोनों असुरों को देखकर लोक पितामह ब्रह्मा जी वहीं एकार्णरूप जलाराशि में अन्तर्धान हो गये। वे भगवान पद्यनाभ (विष्णु) की नाभि से प्रकट हुए कमल में जा बैठे। वह कमल वहाँ पहले ही स्वयं प्रकट हुआ था। कहने को तो वह पंकज था, परंतु पंक से उसकी उत्पत्ति नहीं हुई थी। लोक पितामह ब्रह्मा ने अपने निवास के लिये उस कमल को ही पसंद किया और उसकी भूरी-भूरि सराहना की। भगवान नारायण और ब्रह्मा दोनों ही अनेक सहस्र वर्षो तक उस जल के भीतर सोते रहे, किंतु कभी तनिक भी कम्पायमान नहीं हुए। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात वे दोनों असुर मधु और कैटभ उसी स्थान पर पहुँचे, जहाँ ब्रह्माजी स्थित थे। उन दोनों को आया देख महातेजस्वी लोकनाथ भगवान पद्मनाभ अपनी शय्यासे खड़े हो गये। क्रोध से उनकी आँखे लाल हो गयीं। फिर तो उन दोनों के साथ उनका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। उस भयानक एकार्णव में जहाँ त्रिलोकी जलरूप हो गयी थी, सहस्रों वर्षों तक उनका वह घमासान युद्ध चलता रहा, परंतु उस समय उस युद्ध में उन दोनों दैत्यों को तनिक भी थकावट नहीं होती थी।[1]

मधु-कैटभ का वध

तत्पश्चात् दीर्घकाल व्यतीत होने पर वे दोनों रणोन्मत्त दैत्य प्रसन्न होकर सर्वशक्तिमान् भगवान नारायण से बोले- ‘सुग्श्रेष्ठ! हम दोनों तुम्हारे युद्ध कौशल से बहुत प्रसन्न है। तुम हमारे लिये स्पृहणीय मृत्यु हो। हमें ऐसी जगह मारो, जहाँ की भूमि पानी में डूबी हुई न हो। ‘तथा मरने के पश्चात हम दोनों तुम्हारे पुत्र हों। जो हमें युद्ध में जीत ले, हम उसी के पुत्र हों- ऐसी हमारी इच्छा है।’ उनकी बात सुनकर भगवान नारायण ने उन दोनों दैत्यों को युद्ध में पकड़कर उन्हें दोनों हाथों से दबाया और मधु तथा कैटभ दोनों को अपनी जाँघों पर रखकर मार डाला। मरने पर उन दानों की लाशें जल में डूबकर एक हो गयीं। जल की लहरों से मथित होकर उन दोनों दैत्यों ने जो मेद छोड़ा, उससे आच्छादित होकर वहाँ का जल अदृश्य हो गया। उसी पर भगवान नारायण ने नाना प्रकार के जीवों की सृष्टि की। राजन् कुन्तीकुमार! जन दोनों दैत्यों के मेद से सारी वसुधा आच्छादित हो गयी अत: तभी से यह मही ‘मेदिनी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। भगवान पद्मनाभ के प्रभाव से यह मनुष्यों के लिये शाश्वत आधार बन गयी।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 5
  2. महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 6

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