महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 80 के अनुसार वनगमन के समय पाण्डवों की चेष्टाओं का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र का पाण्डवों के वन जाने की चेष्टा के बारे में विदुर से पुछना
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! दूरदर्शी विदुरजी के आने पर अभिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने शंकित सा होकर पूछा। धृतराष्ट्र बोले - विदुर! कुन्तीनन्दन धर्मपुत्र युधिष्ठिर किस प्रकार जा रहे हैं ? भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव -ये चारों पाण्डव भी किस प्रकार यात्रा करते है ? पुरोहित धौम्य तथा यशस्विनी द्रौपदी भी कैसे जा रही है ? मैं उन सबकी पृथक्-पृथक् चेष्टाओं को सुनना चाहता हूँ, तुम मुझसे कहो।[1]
विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को पाण्डवों की चेष्टाओं के बारे में बताना
विदुर बोले - कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर वस्त्र से मुँह ढँककर जा रहे हैं। पाण्डुकुमार भीमसेन अपनी विशाल भुजाओं की ओर देखते हुए जाते हैं। सव्यसाची अर्जुन बालू बिखेरते हुए राजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे जा रहे हैं। माद्रीकुमार सहदेव अपने मुँह पर मिट्टी पोतकर जाते हैं। लोक में अत्यन्त दर्शनीय मनोहर रूपवाले नकुल अपने सब अंगों में धूल लपेटकर ध्याकुलचित्त हो राजा युधिष्ठिर का अनुसरण कर रहे हैं। परम सुन्दरी विशाल लोचना कृष्णा अपने केशों से ही मुँह ढँककर रोती हुर्इ राजा के पीछे-पीछे जा रही है। महाराज! पुरोहित धौम्यजी हाथ में कुश लेकर रुद्र तथा यमदेवता सम्बन्धी साम-मन्त्रों का गान करते हुए आगे-आगे मार्ग पर चल रहे हैं। धृतराष्ट्र ने पूछा - विदुर! पाण्डव लोग यहाँ जो भिन्न-भिन्न प्रकार की चेष्टृाएँ करते हुए यात्रा कर रहे हैं, उसका क्या रहस्य है, यह बताओ। वे क्यों इस प्रकार जा रहे हैं ? विदुर बोले - महाराज! यद्यपि आपके पुत्रों ने छलपूर्ण बर्ताव किया है। पाण्डवों का राज्य और धन सब कुछ चला गया है तो भी परम बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की बुद्धि धर्म से विचलित नहीं हो रही है। भारत! राजा युधिष्ठिर आपके पुत्रों पर सदा दयाभाव बनाये रखते थे, किंतु इन्होंने छलपूर्ण जूए का आश्रय लेकर उन्हें राज्य से वच्चित किया है, इससे उनके मन में बड़ा क्रोध है और इसीलिये वे अपनी आँखों को नहीं खोलते हैं।’ मैं भयानक दृष्टि से देखकर किसी (निरपराधी) मनुष्य को भस्म न कर डालूँ’ इसी भय से पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपना मुँह ढँककर जा रहे हैं। अब भीमसेन जिस प्रकार चल रहे हैं, उसका रहस्य बताता हूँ, सुनिये! भरतश्रेष्ठ! उन्हें इस बात का अभिमान है कि बाहुबल में मेरे दूसरा कोई नहीं है। इसीलिये वे अपनी विशाल भुजाओं की ओर देखते हुए यात्रा करते हैं। राजन्! अपने बाहुबलरूपी वैभव पर उन्हें गर्व है। अत: वे अपनी दोनों भुजाएँ दिखाते हुए शत्रुओं से बदला लेने के लिये अपने बाहुबल के अनुरूप ही पराक्रम करन चाहते हैं। कुन्तीपुत्र सव्यसाची अर्जुन उस समय राजा के पीछे-पीछे जो बालू बिखेरते हुए यात्रा कर रहे थे, उसके द्वारा वे शत्रुओं पर बाण बरसाने की अभिलाषा व्यक्त करते थे। भारत! इस समय उनके गिराये हुए बालू के कण जैसे आपस में संसक्त न होते हुए लगातार गिरते हैं, उसी प्रकार वे शत्रुओं पर परस्पर संसक्त न होने वाले अपंख्य बाणों की वर्षा करेंगे। भारत! ‘आज इस दुर्दिन में कोई मेरे मुँह को पहचान न ले’ यह सोचकर सहदेव अपने मुँह में मिटृी पोतकर जा रहे हैं।[1] प्रभो! ‘मार्ग में मैं स्त्रियों का चित्त न चुरा लूँ’ इस भय से नकुल अपने सारे अंगों में धूल लगाकर यात्रा करते हैं। द्रौपदी के शरीर पर एक ही वस्त्र था, उसके बाल खुले हुथे थे, वह रजस्वला थी और उसके कपड़ों मे रक्त (रज) का दाग लगा हुआ था, उसने रोते हुए यह बात कही थी। 'जिनकी अन्याय से आज मैं इस दशा को पहुँची हूँ, आज के चौहदवें वर्ष में उनकी स्त्रियाँ भी अपने पति, पुत्र और बन्धु–बान्धवों के मारे जाने से उनकी लाशों के पास लोट-लोटकर रोयेंगी और अपने अंगों में रक्त तथा धूल लपेटे, बाल खोले हुए, अपने सगे-सम्बन्धियों को तिलाजलि दे इसी प्रकार हस्तिनापुर में प्रवेश करेंगी’। भारत! धीरस्वभाव वाले पुरोहित धौम्यजी कुशों का अग्र-भाग नैर्ऋत्य कोण की ओर करके यम देवता सम्बन्धी साममन्त्रों का गान करते हुए पाण्डवों के आगे-आगे जा रहे हैं। धौम्यजी यह कहकर गये थे कि युद्ध में कौरवों के मारे जोन पर उनके गुरु भी इसी प्रकार कभी साम-गान करेंगे।[2]-
पाण्डवों के वन जाने से नगरवासियों का दु:ख से आतुर होना
महाराज! उस समय नगर के लोग अत्यन्त दु:ख से आतुर हो बार-बार चिल्लाकर कह रहे थे कि ‘हाय-हाय! हमारे स्वामी पाण्डव चले जा रहे हैं। अहो! कौरवों जो बडे़-बढे़ लोग हैं, उनकी यह बालकों की-सी चेष्टृा तो देखो। धिक्कार है उनके इस बर्ताव को! ये कौरव लोभवश महाराज पाण्डु के पुत्रों को राज्य से निकाल रहे हैं। इन पाण्डुपुत्रों से वियुक्त होकर हम सब लोग आज अनाथ हो गये। इन लोभी और उदण्ड कौरवों के प्रति हमार प्रेम कैसे हो सकता है ? महाराज! इस प्रकार मनस्वी कुन्तीपुत्र अपनी आकृति एवं चिह्रों के द्वारा अपने आन्तरिक निश्चय को प्रकट करते हुए वन को गये हैं। हस्तिनापुर उन नरश्रेष्ठ पाण्डवों के निकलते ही बिना बादल के बिजली गिरने लगी, पृथ्वी काँप उठी। राजन् बिना पर्व (अमावस्या) के ही राहु ने सूर्य को ग्रस लिया था और नगर को दायें रखकर अल्का गिरी थी। गीध, गीदड़, और कौवे आदि मांसाहारी जन्तु नगर के मन्दिरों, देववृक्षों, चहार दीवारी तथा अटृालिकाओं पर मांस और हडडी आदि लाकर गिराने लगे थे। राजन्! इस प्रकार आपकी दुर्मन्त्रणा के कारण ऐसे-ऐसे अपशकुन रूप दुर्दम्य एवं महान् उत्पात प्रकट हुए हैं, जो भरतवंशियों के विनाश की सूचना दे रहे हैं।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत सभा पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-17
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत सभा पर्व अध्याय 80 श्लोक 18-34
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