महाभारत सभा पर्व के ‘द्यूत पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 53 के अनुसार दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
दुर्योधन द्वारा युधिष्ठिर के अभिषेक में हुई व्यवस्था का वर्णन
दुर्योधन बोला- पिताजी! जो राजा आर्य, सत्यप्रतिज्ञ, महव्रती, विद्वान, वक्ता, वेदोक्त यज्ञों के अन्त में अवभृथ स्न्नान करने वाले, धैर्यवान, लज्जाशील, धर्मात्मा, यशस्व् तथा मूर्धाभिषिक्त थे, वे सभी इन धर्मराज युधिष्ठिर की उपासना करते थे। राजाओं ने दक्षिणा में देने के लिये जो गौएँ मँगवायी थीं, उन सबको मैंने जहाँ-तहाँ देखा। उनके दुग्धपात्र काँसे के थे। वे सबकी सब जंगलों में खुली चरने वाली थीं तथा उनकी संख्या कई हजार थी। भारत! राजालोग युधिष्ठिर के अभिषेक के लिये स्वयं ही प्रयत्न करके शान्तचित्त हो सत्कार पूर्वक छोटे बड़े पात्र उठा उठाकर ले आये थे। बाह्वीक नरेश रथ ले आये, जो सुवर्ण से सजाया गया था। सुदक्षिण ने उस रथ में काम्बोज देश के सफेद घोड़े जोत दिये। महाबली सुनीथ ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उस में अनुकर्ष (रथ के नीचे लगने योग्य काष्ठ) लगा दिया। चेदिराज ने स्वयं उस रथ में ध्वजा फहरा दी। दक्षिण देश के राजा ने कचव दिया। मगध नरेश ने माला और पगड़ी प्रस्तुत की। महान् धनुर्धर वसुदान ने साठ वर्ष की अवस्था का एक गजराज उपस्थित कर दिया। सत्स्य नरेश ने सुवर्ण जटित धुरीला दी। एकलव्य ने पैरों के समीप जूते लाकर रख दियेे। अवन्ती नरेश ने अभिषेक के लिये अनेक प्रकार का जल एकत्र कर दिया। चेकितान ने तूणीर और काशिराज ने धनुष अर्पित किया। शल्य ने अच्छी मूठवाली तलवार तथा छीके पर रखा हुआ सुवर्ण भषित कलश प्रदान किया। तदनन्तर धौम्य तथा महातपस्वी व्यास ने देवर्षि नारद, देवल और असित मुनि को आगे करके युधिष्ठिर का अभिषेक किया। परशुरामजी के साथ वेद के पारंगत दूसरे विद्वान महर्षियों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा युधिष्ठिर का अभिषेक किया। जैसे स्वर्ग में देवराज इन्द्र के पास सप्तर्षि पधारते हैं, उसी प्रकार पर्याप्त दक्षिणा देने वाले महाराज युधिष्ठिर के पास बहुत से महात्मा मन्त्रोचारण करते हुए पधारे थे। सत्यपराक्रमी सात्यकि ने युधिष्ठिर के लिये छत्र धारण किया तथा अर्जुन और भीमसेन ने व्यजन डुलाये। तथा नकुल और सहदेव ने दो विशुद्ध चँवर हाथ में ले लिये। पूर्वकाल में प्रजापति ने इन्द्र के लिये जिस शंख को धारण किया था, वही वरुण देवता का शंख समुद्र ने युधिष्ठिर को भेंट किया था। विश्वकर्मा ने एक हजार स्वर्ण मुद्राओं से जिस शैक्यपात्र (छींके पर रखे हुए सुवर्ण कलश) का निर्माण किा था, उसमें स्थित समुद्र जल को शंख में लकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर का अभिषेक किया। उस समय वहाँ मुझे मूर्च्छा आ गयी थी। पिताजी! लोग जल लाने के लिये पूर्व से पश्चिम समुद्र तक जाते हैं, दक्षिण समुद्र की भी यात्रा करते हैं। परंतु उत्तर समुद्र तक पक्षियों के सिवा और कोई नहीं जाता, (किंतु वहाँ भी अर्जुन पहुँच गये।) वहाँ अभिषेक के समय सैकड़ों मंगलकारी शंख एक साथ ही जोर-जोर से बजने लगे, जिससे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उस समय वहाँ जो तेजोहीन भूपाल थे, वे भय के मारे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। धृष्टद्युम्र, पाँचों पाण्डव, सात्यकि और आठवें श्रीकृष्ण ये ही धैर्यपर्वूक स्थिर है। ये सभी पराक्रम सम्पन्न तथा एक दूसरे का प्रिय करने वाले हैं।[1]
दुर्योधन का युधिष्ठिर के धन-वैभव को देख शोकमग्न होना
वे मुझे तथा अन्य राजाओं को अचेत हुए देखकर उस समय जोर-जोर से हँस रहे थे। भारत! तदनन्तर अर्जुन ने प्रसन्न होकर पाँच सौ बैलों को, जिनके सींगों में सोना मँढ़ा हुआ था, मुख्य-मुख्य ब्राह्मणों में बाँट दिया। पिताजी! न रन्तिदेव, न नाभाग, न मान्धाता, न मुन, न वेननन्दन राजा राजा पृथु, न भागीरथ, न ययाति और न नहुष ही वैसे ऐश्वर्य सम्पन्न सम्राट थे, जैसे कि आज राजा युधिष्ठिर हैं। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ पूर्ण करके अत्यन्त उच्च कोटिकी राजलक्ष्मी से सम्पन्न हो गये हैं। ये शक्तिशाली महाराज हरिश्चन्द्र की भाँति सुशोभित होते हैं। भारत! हरिश्चन्द्र की भाँति कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर की इस राजलक्ष्मी को देखकर मेरा जीवित रहना आप किस दृष्टि से अच्छा समझते हैं? राजन्! यह युग अंधे विद्याताओं से बँधा हुआ है। इसीलिये इसमें सब बातें उल्टी हो रही हैं। छोटे बढ़ रहे हैं और बड़े हीन दशा में गिरते जा रहे हैं। कुरुप्रवीर! ऐसा देखकर अच्छी तरह विचार करने पर भी मुझे चैन नहीं पड़ता। इसी से मैं दुर्बल, कान्तिहीन और शोकमग्न हो रहा हूँ।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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